बाढ़ – नियंत्रण

Afeias
01 Sep 2016
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Date: 01-09-16

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बाढ़ की घटनाएं मानसून के दौरान प्रतिवर्ष दोहराई जाती हैं, जिससे जान-माल की बहुत हानि होती है। इसका अंदाजा सन् 1978-2006 तक के काल पर किए सर्वेक्षण से लगाया जा सकता है, जो यह बताता है कि इस दौरान 2,443 बाढ़ की घटनाओं से 45,000 लोगों की मौत हुई एवं 1600 करोड़ डॉलर की हानि हुई। सन् 2016 में भी बाढ़ की स्थति यही कहानी कहती नजर आ रही है। देश के पाँच बडे़ राज्य बुरी तरह से बाढ़ की चपेट में है और जान-माल की हानि बहुत हो रही है।

आखिर बाढ़ से इतने नुकसान का कारण क्या है?

  • बाढ के दौरान होने वाले बचाव एवं राहत कार्यों की गति अत्यन्त धीमी है। सौभाग्यवश कुछ लोगों को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन दल की मदद से बचाया जाता है, परंतु ऐसे दलों की भी अपनी सीमा है। ग्रामों की बहुतायत वाले बिहार जैसे राज्यों में इस दल की सहायता बहुत कम मालमू पड़ती है।
  • मौसम के असामान्य एवं भयावह रूप से होने वाले नुकसान को संभालने की क्षमता हर प्रकार से कम है। राहत शिविर लगाने, आपदाग्रस्त स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, राशन एवं दवाइयों की पर्याप्त मात्रा का स्टॉक रखने के प्रति सरकारी मशीनरी गंभीर नहीं है।
  • आपदाग्रस्त स्थितियों में राहत कार्यों की विफलता का एक जो बड़ा कारण दिखाई देता है, वह है- हमारी नियमित सेवाओं का ढिसरापन। जब दैनिक जीवन में भी स्वास्थ, राहत, खाद्य-सामग्री के प्रबंधन की समस्याएं हैं, तो विषूम परिस्थितियों में क्या उम्मीद की जा सकती है।
  • गर्भवती महिलाओं के लिए कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती। बाढ़ के दौरान और उसके बाद होने वाले संक्रमण को बचाने के लिए कोई विशेष कार्यनीति ही नहीं है।

कुछ वैज्ञानिक समाधान

  • मानसून के दौरान गंगा एवं उसकी सहायक नदियों के पैटर्न को समझने के लिए समन्वित प्रयास की आवश्यकता है।
  • भूमि सर्वेक्षण की अपेक्षा सरकार को उपग्रह चित्रों पर आधारित नक्शों एवं भौगोलिक सूचना तंत्र जैसी आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करना चाहिए।
  • बिहार की कोसी नदी जिस प्रकार अपनी सीमाओं को हर बार अलग पैटर्न में तोड़ती है, ऐसी नदियों के व्यवहार को गहराई से समझकर सुरक्षात्मक उपाय किए जा सकते हैं।
  • नदियों पर बने बांध, बचाव नहर एवं बैराज आदि सदियों पुराने हैं, जिनका सर्वेक्षण करके उनमें सुधार किया जाना आवश्यक है।

बाढ के कारण होने वाले वार्षिक नुकसान को रोकने के लिए एकीकृत दृष्टि की आवश्यकता है।

द हिंदूके संपादकीय पर आधारित