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अनियोजित शहरों की परेशानी
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ऐतिहासिक फैसला क्या है ?
1985 के ओल्गा टेलिस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अतिक्रमण को वैध नहीं माना जा सकता, लेकिन बेदखली के प्रयास में की जाने वाली मनमानी, आजीविका के अधिकार के विरूद्ध है।
कुछ तथ्यात्मक बिंदु –
- जनगणना 2011 में 1 करोड़ तीस लाख के लगभग परिवार ऐसे थे, जो शहरों की झुग्गी-झोपड़ियों में रह रहे थे।
- ग्रेटर मुंबई के तो 41.3% परिवार इस श्रेणी में आते हैं।
- इन गरीब बस्तियों में रहने वाले लोग शहरी जीवन के आर्थिक पक्ष का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
- झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लगभग 70.2% परिवारों के पास अपनी झुग्गी हैं, यानि स्वामित्व है। यह किसी शहर के अन्य वासियों के मालिकाना हक से एक प्रतिशत ज्यादा है।
- झुग्गी वालों को यह अधिकार उनके कामकाज के आधार पर दे दिया जाता है। कुछ सरकारी निकाय इस दावे को स्वीकार करके दस्तावेज भी दे देते हैं।
यहाँ मूल प्रश्न यह है कि शहरों में झुग्गी हैं ही क्यों, जबकि उनके निवासियों को शहरी आर्थिक पदिदृश्य का अभिन्न अंग माना जाता है ?
इसका उत्तर शहरी नियोजन और शासन की विफलता में निहित है। शहरों के लिए जो मास्टर प्लान बनाए जाते हैं, वे स्वीकार किए जाने के तुरंत बाद अप्रासंगिक हो जाते हैं। शहरी अर्थव्यवस्था की बदलती गति के साथ, शहरी नियोजन और प्रशासनिक ढांचे का तालमेल ही नहीं बन पाता है। झुग्गियों का होना, इसी विफलता का परिणाम है।
वर्तमान भारत के शहर विकास-इंजन का काम कर रहे हैं। यहाँ के जनजीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए राज्य एवं नगर प्रशासन को व्यवस्था करनी चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 07 जनवरी, 2023