हिरासत में होने वाली मौतों पर नियंत्रण कैसे हो?
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पिछले बीस वर्षों से भारत में प्रतिदिन लगभग तीन कैदियों की हिरासत में मौत हो रही है। इन मौतों का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या होता है। जबकि सरकारी दस्तावेजों को देखें, तो नब्बे प्रतिशत मौत ‘प्राकृतिक’ घोषित की गई होती हैं। हिरासत में प्राकृतिक मौत की बात पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है?
कारण
- मौतों की संख्या बताती है कि हमारे देश में कैदियों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के हिसाब से जेल पर्याप्त साधनों से लैस नहीं हैं।
- समय-समय पर सार्वजनिक जांच की बहुत कमी है। कैदियों की वास्तविक दशा या दुर्दशा सार्वजनिक नहीं हो पाती। सवाल तब उठते हैं, जब नतीजा आत्महत्या के रूप में सामने आता है।
- ऐसा माना जा सकता है कि अधिकतर मौतें जेलों में कैदियों की बदहाल जिंदगी के कारण होती हैं। कैदियों का बाहरी दुनिया से कोई नाता नहीं रह जाता। इसलिए वे घोर निराशा में रहते हैं। समय पर उन्हें अदालत नहीं ले जाया जाता। वे जल्दी-जल्दी अपने परिजनों या वकील से नहीं मिल पाते और अपनी मनःस्थिति को बयां करने के लिए उन्हें कोई नहीं मिलता। उनकी शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। उन्हें आवश्यक चिकित्सा सुविधाएं तक नहीं दी जातीं। उनकी इच्छाएं घुटती रहती हैं और कई बार वे इस घुटन को सहन नहीं कर पाते।
- इन सतही कारणों के अलावा जेल की जिंदगी से जुड़े बहुत से अंदरुनी कारण भी होते हैं, जो कैदियों का जीना दूभर कर देते हैं। उत्तर प्रदेश की डासना जेल में एक गुप्त अभियान चलाकर कैदियों के साथ हो रहे दुव्र्यवहार का खुलासा किया गया। जेलों में भ्रष्टाचार, जबरन वसूली एवं यातना का तांडव होता है।
समाधान
- जेल जैसी संस्थाओं की जवाबदेही तय की जानी चाहिए। जेल का निरीक्षण नियमित रूप से किया जाए। इन निरीक्षकों में मजिस्ट्रेट, जज, राज्य मानवाधिकार आयोग के सदस्य तथा समाज से ही चुने हुए कुछ व्यक्ति हों।राष्ट्रमंडल मानवाधिकार के एक अध्ययन के अनुसार लगभग एक प्रतिशत से भी कम भारतीय जेलों का निरीक्षण किया जाता है।
- गत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र एवं राज्य की सभी जेलों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश दिए थे। इनसे दो उद्देश्य सिद्ध होते हैं। एक तो यह कि ये किसी घटना के प्रत्यक्ष प्रमाण बन जाते हैं। दूसरे यह कि ये अत्याचार एवं दुव्र्यवहार के प्रति कैदियों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं।
- कैदियों के लिए परामर्शदाता नियुक्त होने चाहिए। ये ऐसे हों, जो उनकी व्यथा सुन सकें, उन्हें ढांढस बंधा सकें। हालाँकि सभी जेलों में परामर्शदाताओं का प्रावधान होता है, परंतु वास्तविक तौर पर इनकी नियुक्ति में बहुत कमी है।
- कैदियों की मौत के दौरान एवं उसके बाद होने वाली जाँच-पड़ताल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी चाहिए। एक मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी कैदी की मौत की रिपोर्ट पर प्रश्नचिन्ह लगाया था।यूँ तो जेल में हुई किसी मृत्यु की रिपोर्ट 24 घंटे के भीतर ही मानवाधिकार आयोग तक पहुँच जानी चाहिए, परंतु मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े मेल नहीं खाते। आधे से अधिक अस्वाभाविक मौतों को ‘अन्य’ की श्रेणी में डालकर उनकी रिपोर्ट बनाई जाती है, और यह ‘‘अन्य’’ बहुत ही रहस्यमयी होता है।कानून के दायरे में किसी कैदी की स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है, परंतु उसके जीवन को खत्म नहीं किया जाना चाहिए। राज्य सरकारों को जेलों के बारे में दी गई राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
‘द हिंदू’ में राजा बग्गा के लेख पर आधारित
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