सांस्कृतिक सौहार्द्र को जीआई की भेंट न चढ़ाएं

Afeias
19 Dec 2017
A+ A-

Date:19-12-17

To Download Click Here.

हाल ही में बंगाल ने ‘रसगुल्ले’ को अपने प्रांत का जीआई टैग (ज्याग्रॉफिकल इंडीकेशन्स) दिलवाने में सफलता प्राप्त की है। कुछ अर्थों में यह जी आई प्रक्रिया का दुरूपयोग करने जैसा है। साथ ही नए व्यंजनों के माध्यमों से विभिन्न संस्कृतियों के मेल-मिलाप पर भी यह एक बड़ी चोट है।विश्व बौद्धिक संपदा संगठन ने जी आई को ऐसा मानक बताया है, जो उन उत्पादों पर लगाया जाता है, जिनकी उत्पत्ति के भौगोलिक साक्ष्य किसी प्रमाण से प्राप्त हों एवं उसकी उत्पत्ति से जुड़े स्थान के कारण उसमें कुछ विशेष गुण पाए जाएं। इसका अर्थ है कि जी आई टैग प्राप्त करने के लिए किसी उत्पाद को दो परीक्षणों पर खरा उतरना आवश्यक होता है।

  • उत्पाद की उत्पत्ति उस विशेष क्षेत्र में होनी चाहिए।
  • उत्पाद की गुणवत्ता, विशेषता एवं साख का कारण कोई विशेष हो। भारतीय जी आई अधिनियम, 1999 में भी ऐसी ही प्रक्रिया दी गई है।

यदि हम रसगुल्ले के संदर्भ में देखें, तो उसकी उत्पत्ति संबधी स्थान के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। परन्तु जी आई टेग की दूसरी शर्त को देखें, तो मतभेद हो सकते हैं। बंगाल के दावे का आधार पूर्णतः ऐतिहासिक है। सेक्टर 1868 में नवीन चन्द्र दास ने रसगुल्ले की शुरूआत की थी। दूसरी ओर ओड़ीशा का दावा ह कि भगवान जगन्नाथ के मंदिर में करीब 600 वर्षों से रसगुल्ले का भोग लगाया जा रहा है। दोनों ही पक्षों ने उसकी गुणवत्ता एवं विशेषता का उनके क्षेत्र से जुड़े होने का साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया है। अगर दोनों में से कोई भी ऐसा करने में सफल हो जाता, तो विवाद की स्थिति ही नहीं रहती।दार्जिलिंग की चाय का संबंध वहाँ की मिट्टी एवं जलवायु की स्थितियों से जुड़ा है। उसकी प्रतिकृति तैयार नहीं की जा सकती। इसी प्रकार फ्रांस के शैंपेन क्षेत्र में तैयार की गई वाइन की अपनी अलग विशेषता है।

रसगुल्ले को जी आई टैग देने के संबंध में इतना ध्यान अवश्य रखा गया है कि इसे ‘बंगलार रसगुल्ला’ के नाम से पंजीकृत किया गया है। यह ओड़ीशा के ‘पहाला रसगुल्ला’ की अपेक्षा बहुत भिन्न है। परन्तु गैर-पूर्वी क्षेत्रों की खबरों में ऐसा प्रकाशित किया गया, जिससे लगने लगा कि सभी रसगुल्लों का जी आई टैग बंगाल को दे दिया गया है।भारत में अलग-अलग प्रांतों में अनेक व्यंजन प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं। इन व्यंजनों पर ‘अपनी संपत्ति’ का दावा ठोके जाने से सांस्कृतिक एकता एवं आदान-प्रदान पर आँच आने लगेगी। भारत में अनेक ऐसे खाद्य पदार्थ हैं, जो मूल रूप से विदेशी हैं। अनेक व्यंजन विधियाँ हैं, जो अलग-अलग प्रान्तों के संयोजन से तैयार की गई हैं। रसगुल्ले पर जी आई टैग लगाकर एक गलत उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है।

अनेक इतिहासकार रसगुल्ले के प्रमुख घटक ‘छेना’ को ओड़ीशा एवं बंगाल दोनों ही स्थानों की उत्पत्ति मानते हैं। एंड्रयू डेल्बी ने अपनी पुस्तक ‘चीज़: ए ग्लोबल हिस्ट्री’ में लिखा है कि ओड़ीशा और बंगाल में पनीर के एक प्रकार ‘छेना’ को भैंस के दूध से बनाया जाता है।’ इस बिन्दु के स्पष्ट हुए बिना, बंगाल के नाम पर ‘रसगुल्ले’ का पंजीकरण किया जाना जल्दबाजी भरा कदम है।किसी व्यंजन प्रेमी के लिए यह दुख का विषय है कि उसके प्रिय व्यंजन पर किसी का एकाधिकार स्थापित कर दिया जाए और उससे किसी अन्य स्थान पर उसका स्वाद लेने का अवसर छीन लिया जाए।हम जिस प्रकार के समाज में रहते हैं, वहाँ की संस्कृति एवं खान-पान का नियमन इस प्रकार से नहीं किया जाना चाहिए कि वह दमघोंटू बन जाए। उनके परस्पर मेल को घटिया राजनीति की भेंट चढ़ाने की अपेक्षा, सौहाद्र्र का विषय बनाया जाना चाहिए।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित शौर्येन्दु के लेख पर आधारित।

Subscribe Our Newsletter