भारत में अंतर्दलीय प्रजातंत्र का प्रश्न
Date:11-01-18
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भारत की राजनीति में राजनीतिक दलों पर अक्सर वंशवाद एवं दलों में आंतरिक प्रजातंत्र के अभाव का दोषारोपण किया जाता है। हाल ही में राहुल गांधी के कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने पर भाजपा ने बार-बार कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाया है। राहुल गांधी अपने परिवार के छठे सदस्य हैं, जिन्होंने यह पद संभाला है। काँग्रेस ही क्यों, भाजपा एवं अन्य दलों में भी प्रजातंत्र का अभाव है। पार्टी प्रमुख एवं अन्य पदों पर चुनाव के लिए कोई भी दल प्रजातांत्रिक तरीके नहीं अपनाता है।
सन् 1980 में भाजपा के गठन से लेकर अब तक कभी भी उसके अध्यक्ष के लिए चुनाव नहीं करवाया गया। पहले राज्य स्तर पर चुनाव कराए जाते थे। परन्तु कुछ समय से वहाँ भी इस प्रथा को हटा दिया गया है।
केन्द्रीय नेतृत्व का प्रभुत्व
भले ही काँग्रेस में एक ही परिवार के लोगों का वर्चस्व चलता आ रहा है, लेकिन भाजपा भी इससे अछूती नहीं है। भाजपा के पार्टी चुनाव में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का बोलबाला रहता है। एक प्रकार से वही पार्टी अध्यक्ष का चुनाव करती है। अतः दोनों दलों में कोई भेद नहीं है।
लगभग सभी राजनैतिक दलों में निर्णय केन्द्रीकृत रूप से लिए जाते हैं। पार्टी टिकट का वितरण, मुख्य मंत्रियों का चुनाव, राज्य प्रमुख एवं वित्त का प्रबंधन भी दलों की केन्द्रीय सत्ता द्वारा ही संचालित होता है। सन् 1969 से काँग्रेस ने इस प्रथा की शुरूआत की थी, जिसे अन्य दलों ने भी आदर्श के रूप में अपना लिया। जहाँ तक एक परिवार के वर्चस्व की बात है, काँग्रेस इसका अपवाद नहीं है। कई अन्य दलों में भी यही परंपरा अपनाई जा रही है। 2014 में भाजपा के चुने हुए 14.89 प्रतिशत सांसद परिवादवाद का ही उदाहरण हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों को ही अधिक टिकट बांटे।
अन्य देशों के राजनैतिक दलों में विकेन्द्रीकरण
जर्मनी में किसी भी दल को अपने उम्मीदवारों एवं पार्टी में पद देने हेतु कुछ खास शर्तों को पूरा करना आवश्यक होता है। पार्टी उम्मीदवारों को इसके लिए स्थानीय एवं संघीय स्तर पर खरा उतरना पड़ता है। अमेरिका में भी अंतर्दलीय चुनावों के लिए कुछ कानून अधिनियमित किए गए हैं। इसे गुप्त मतदान के रूप में कराया जाता है। ब्रिटिश लेबर पार्टी, स्पेनिश सोशलिस्ट वर्कर पार्टी, अमेरिकन डेमोक्रेटिक पार्टी एवं प्रोग्रेसिव कंजर्वेटिव पार्टी आॅफ कनाडा में दलों पर अभिजात्य वर्ग के वर्चस्व को कम करने के लिए आंदोलन हुए हैं।
भारत में पार्टी सुधार
भारत में दलों के भीतर प्रजातांत्रिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए किसी प्रकार का कोई प्रयास नहीं किया गया है। कार्यकर्ताओं से लेकर मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री तक के चुनाव का अधिकार दल के कुछ गिने-चुने लोगों के हाथ में रहता है। दल के चुनाव हार जाने की स्थिति में आमतौर पर नेतृत्व में परिवर्तन नहीं किया जाता है। वामपंथियों को छोड़कर अन्य सभी दल उम्मीदवारों के चुनाव से लेकर पार्टी के घोषणा-पत्र के निर्माण में एक घिसी-पिटी लीक का अनुसरण करते हैं।
भारत के पार्टी सुधार का मुद्दा एक ज्वलंत प्रश्न हो सकता है, परन्तु यह पार्टी में व्याप्त अनियमितताओं की एकमात्र औषधि नहीं है।
- दलों में संस्थात्मकता का अभाव है। इसके परिणामस्वरूप ही प्रजातांत्रिकरण का भी अभाव हो जाता है। दलों की सबसे बड़ी कमजोरी इनका केन्द्रीय नेतृत्व के अधीन होना है। इसके कारण पार्टी के कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओं की भागीदारी नहीं हो पाती। एक पदासीन व्यक्ति अपना वर्चस्व खो जाने के डर से ऐसा होने भी नहीं देता। दलगत राजनीति के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।
- आज के राजनीतिक दल मात्र चुनाव जीतने वाली मशीन के रूप में परिणत हो गए हैं। इनके नेताओं को जनता को आकृष्ट करने की शक्ति पर आंका जाता है। इन नेताओं का काम पार्टी के चंदे को बढ़ाने तक ही सीमित हो गया है। पार्टी की धनराशि का नियंत्रण किसी केन्द्रीय शक्ति के पास होने से राज्य ईकाईयों एवं पदों का अस्तित्व नगण्य सा हो जाता है। यही प्रक्रिया दलों की अंतर्निहित क्षमता को क्षीण और अप्रजातांत्रिक करती जा रही है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित ज़ोया हसन के लेख पर आधारित।