दमन का शिकार होते उच्च शिक्षा संस्थान
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हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के विद्यार्थियों ने जिस तरह की हिंसा का सहारा लिया है, उसे देखते हुए यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि वर्तमान में हमारे विश्वविद्यालय बहुत सुरक्षित नहीं है। विद्यार्थी संगठनों को ऐसा करते हुए यह याद रखना चाहिए कि ‘राष्ट्र‘ उनकी बपौती नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वे किसी को रोक नहीं सकते।
- अलग–अलग सरकारों का रवैया–
अलग-अलग समय पर विभिन्न सरकारों ने केंद्र एवं राज्य स्तर पर बौद्धिक स्वतंत्रता एवं सरकार की आलोचना के प्रयासों को दबाने की भरपूर कोशिश की है। एक लंबे अरसे तक उच्च शिक्षा की उपेक्षा के बाद अचानक केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा की सुध तो ली, उसने लेकिन अकादमिक संस्थाओं, अनुसंधान संगठनों और पाठ्य पुस्तकों के भगवाकरण पर अधिक ध्यान दिया। साथ ही विश्वविद्यालय परिसरों पर नज़र भी रखी जाने लगी। उच्च शिक्षा केंद्रीय नियंत्रण में रखने की यूपीए सरकार की नीति को जारी रखते हुए ही वर्तमान सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2016 का प्रारूप तैयार किया है। प्रारूप की भाषा अस्पष्ट रखी गई है। साथ ही पुरानी शिक्षा नीतियों में ‘राष्ट्रीय शिक्षा सेवा‘ को अंजाम देने की कुटिल चाल भी चली गई है।
इन सबसे आगे बढ़कर पश्चिम बंगाल में तो ममता बनर्जी ने उच्च शिक्षा अधिनियम, 2017 के द्वारा राज्य के विश्वविद्यालयों की प्रशासनिक स्वायŸाता को ही समाप्त कर दिया है। ऐसा वही लोग कर सकते हैं, जो नहीं जानते कि नवप्रवर्तन का सीधा संबंध बौद्धिक स्वतंत्रता से है। सरकारों के इसी रूख के कारण विद्यार्थी, बुद्धिजीवी वर्ग और राजनैतिक संसार का एक सीमित तबका संघर्ष करने को मजबूर हो जाता है। विश्वविद्यालयों में होने वाले इस प्रकार के संघर्ष शायद अब बीते दिनों की बात लगने लगें, क्योंकि सरकार ने तो विश्वविद्यालयों के अंदर और बाहर दोनों ही जगह ‘राष्ट्र‘ की इस प्रकार से व्याख्या कर रखी है कि वह सरकार के विरूद्ध जाने वाले किसी भी शख्स को ‘राष्ट्रद्रोही‘ करार कर सकती है।
- संकट में है उच्च शिक्षा – संस्थान –
दरअसल, हमारे देश के विश्वविद्यालय प्रतिवाद और संघर्ष के अखाड़े बन चुके हैं। हमारी उच्च शिक्षा तो वैसे ही कोई उच्च स्तरीय नहीं है। फिर जाति, राजनीति, वर्ग और लिंग-भेद ने इन्हें पतन के गर्त में पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चाहे रोहित वैमुला की मृत्यु को देखें या नजीब अहमद के लापता होने को, चाहे जादवपुर विश्वविद्यालय की पुलिस की गिनती करें या रामजस कॉलेज की घटना का जिक्र करें, सबके केंद्र में एक ही बात है। ये सभी घटनाएं सार्वजनिक विश्वविद्यालयीन प्रणाली के उद्देश्य और समालोचनात्मक दृष्टिकोण का गला घोंटने के लिए अंजाम दी गई लगती हैं।
‘इकॉनॉमिक टाइम्स‘ में प्रकाशित सुप्रिया चैधरी के लेख पर आधारित।