चीनी निवेश का लाभ उठाने की आवश्यकता

Afeias
08 May 2020
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Date:08-05-20

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हाल ही में भारत सरकार ने देश में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के नियमों में परिवर्तन करके चीन के बड़े निवेश को रोक दिया है। इस पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। जहाँ एक तरफ चीनी निवेश को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना जा रहा था, वहीं यह भी सत्य है कि चीन की कंपनियां अन्य निवेशकों से भिन्न हैं। चीन के कार्पोरेशन पर वहां की सरकार का बड़ा या पूरा नियंत्रण रहता है। अतः चीनी निवेश का आधार राजनैतिक ही रहता है।

दूसरे, सरकार को डर था कि चीन हमारे स्टॉक मार्केट के गिरे हुए दामों का लाभ उठाकर उद्योगों पर प्रभाव जमा सकता है। यह आशंका सत्य नहीं है। भारत को यह अधिकार है कि वह रणनीतिक मूल्यों पर काम करने वाली किसी भी भारतीय कंपनी के अधिग्रहण को रोक सकता है। भारत को अपने डेटा नियंत्रण पर भी ध्यान देना चाहिए। वह अमेरिका के विरोध के बावजूद पहले ही डेटा लोकलाइजेशन की शर्त रख चुका है।

अतः चीन का जितना निवेश भारत में बढ़ेगा, वह भारत के लिए लाभदायक होगा। भारत, चाहे तो नियमों में परिवर्तन करके चीन पर दबाव बनाए रख सकता है।

विदेशी निवेशक पहले भी यह मानते चले आ रहे हैं कि उन्हें परेशान करने के लिए भारत, नियम-कानून में मनमाने परिवर्तन करता है। भारत का यह रिकार्ड रहा है कि वह निवेशकों को आने देता है, फिर उन्हें परेशान करता है। कई अर्थों में यह अनुचित आर्थिक नीति है। चीन के संदर्भ में इसका लाभ लिया जा सकता है।

वॉलमार्ट ने एक मोटी रकम देकर फ्लिपकार्ट को खरीदा था, और यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि शायद अब भारतीय ई-कामर्स में वॉलमार्ट और अमेजन ही राज करेंगे। इसी बीच सरकार ने विदेशी ई-कॉमर्स फर्मों के लिए नियम बदल दिए। रिलायंस जियो के लिए कोई सीमाएं नहीं रखी गईं। रिलायंस के लिए सरकार का यह कदम, अक्षम्य राष्ट्रवाद की श्रेणी में आता है।

वोडाफोन विवाद में उच्चतम न्यायालय ने भी वोडाफोन को सही ठहराया था। फिर भी सरकार ने कानून बदलकर उसे राशि का भुगतान करने पर मजबूर कर दिया।

नोकिया ने तमिलनाडु में हैंडसैट उद्योग लगाया था। सरकार ने पैनल्टी के साथ कर की राशि को अत्यधिक बढ़ा दिया, और नोकिया बंद हो गया। ये सभी घटनाएं विदेशी निवेशकों के लिए खतरे पैदा करने वाली मानी जाती हैं।

अनेक विदेशी कंपनियों ने 2जी टेलीकॉम लाइसेंस के लिए बोली लगाई थी, और उन्हें लाइसेंस मिल भी गया था। उच्चतम न्यायालय ने सभी लाइसेंस निरस्त कर दिए, क्योंकि नियमों के अनुसार इनकी नीलामी नहीं की गई थी। कंपनियों ने अपने का दोषमुक्त बताते हुए ऐसा न करने की गुहार लगाई थी। इस प्रकरण में कंपनियों का बहुत-सा धन बर्बाद हुआ।

कहने का अर्थ यही है कि विदेशी निवेशकों को अनुमति देकर भारत कोई जोखिम नहीं उठाता है। उल्टे, बड़े-से-बड़े विदेशी निवेशक को भी डर होता है कि वह कहीं भारत के रवैये से खतरे में न पड़ जाए।

एक दौर ऐसा था, जब मध्य पूर्व के देशों में निवेश करने वाली विदेशी तेल कंपनियाँ उन देशों पर नियंत्रण स्थापित कर रही थीं। जब 1951 में ईरान ने सबका राष्ट्रीयकरण कर दिया, तो अमेरीका और ब्रिटेन ने मिलकर इन्हें बाहर करने के लिए तख्ता पलट का षड़यंत्र किया था। वह दौर बहुत पीछे छूट गया है। 1974 में जब OPEC देशों ने सभी बड़ी तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया, तो अमेरीका कुछ नहीं कर पाया।

अतः किसी देश में बड़ा निवेश करना निवेशक के लिए जोखिम भरा हो सकता है, मेजबान देश के लिए नहीं। आज के चीनी निवेश से हमारे नीचे गिरे स्टॉक बाजार को थोड़ा उछाल मिल सकेगा। दूसरे, बहुत से सार्वजनिक उपक्रमों की नीलामी की योजना तैयार की जा रही है। चीन के आने से इन उपक्रमों की बोली को बढ़ाया जा सकता है।

यथासंभव सावधानी रखते हुए चीन को निवेश की पर्याप्त छूट दी जानी चाहिए, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था को भी कुछ उछाल मिल सके।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस. अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित। 26 अप्रैल 2020

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