ग्राम-सभाओं के अधिकार छीनता तंत्र
Date:11-04-19 To Download Click Here.
सन् 1980 के बाद से वन संरक्षण अधिनियम के नाम पर पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 1.5 करोड़ हेक्टेयर से अधिक भूमि को गैर वनीय गतिविधियों के लिए स्वाहा कर दिया है। इस ‘कानून के दायरे में’ होने वाले वन-विनाश ने अनेक आदिवासियों और वनवासियों को उनकी जड़ों से उखाड़ दिया है। जिन निगमों को वन की भूमि सौंपी गई है, उन्होंने इस भूमि का उपयोग करके करोड़ों रुपये कमा लिये हैं। क्षतिपूर्ति के नाम पर वन विभाग को भी पर्याप्त राशि मिल चुकी है। हानि हुई है, तो उनको जो गरीब हैं, और वनोपजों की जरिए अपनी जीविका चला रहे थे। इन सबके बीच यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर वनों के संरक्षण के लिए बनाए गए अधिनियम का इस कदर दुरुपयोग क्यों किया जा रहा है? इसकी विफलता के पीछ क्या कारण हैं?
अधिनियम का दुरुपयोग
वन संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य ही वन पर निर्भर रहने वाली जातियों या समुदायों की रक्षा करना था। उन्हें वन पारिस्थितिकीय तंत्र में आने वाली जैव विधिता के संरक्षण का अभिन्न अंग माना जाना था। अधिनियम ने वन-समुदायों की पहचान का अधिकार और संरक्षण का उत्तरदायित्व ग्राम-सभाओं को सौंपा था।
2009 से लेकर अब तक इस अधिनियम के उद्देश्य को नष्ट करने के अनेक प्रयास किए जा चुके हैं। 2016 में ओड़िशा के एक आदिवासी गांव की 1400 एकड़ वनभूमि को लौह अयस्क कंपनी को उत्खनन के लिए दे दिया गया। इसकी स्वीकृति के लिए सात गांवों का प्रतिनिधित्व करने वाली सात ग्राम सभाओं और फर्जी ग्रामवासियों से यह मनवा लिया गया कि वे उस वन-भूमि का उपयोग जीविका या खेती के लिए नहीं करते हैं। अतः उसे सरकार गैर-वनीय गतिविधियों के लिए उपयोग में ले सकती है। इस अनुबंध के उजागर होने पर ग्रामवासियों में बहुत ज्यादा आक्रोश था। इस पर राज्य सरकार ने जाँच पड़ताल का आदेश दिया था, परन्तु रिपोर्ट को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया।
वर्तमान सरकार ने इस तथ्य को पूरी तरह से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वन भूमि को अन्य उपयोगों के लिए देने की स्वीकृति प्रदान करने में वनवासियों एवं आदिवासियों की भूमिका को एक मूक रबर स्टैम्प से ज्यादा कुछ भी नहीं माना जाना चाहिए। 26, फरवरी, 2019 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों को इस बात की लिखित सूचना भेज दी कि वन-भूमि के अन्य उपयोगों के लिए अधिनियम के अनुसार स्वीकृति प्राप्त करने की कोई अनिवार्यता नहीं है। सरकार के इस कदम ने ग्राम-सभाओं के निर्णयात्मक अधिकार को समाप्त और वनवासियों को असहाय व निराश्रित कर दिया है।
वन-समुदाय अपना असंतोष प्रकट कर रहे हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र में उत्खनन कंपनी को 2,000 एकड़ भूमि दिए जाने के विरोध में 30 कि.मी. लंबी यात्रा निकाली गई। हरियाणा के अरावली क्षेत्र में भी सरकार ने बहुत सी भूमि गैर वनीय गतिविधियों के लिए स्वीकृत कर दी है। इसका पुरजोर विरोध किया जा रहा है।
ग्राम सभाओं की शक्तियों को जाली तौर पर उपयोग करने वाला वन-प्रशासन का यह मॉडल, निर्दयता से संसाधनों को हड़पता जा रहा है। हमारे वनों और प्रजातंत्र का विध्वंस करने वाली इस मॉडल पर उच्चतम न्यायालय को लगाम कसनी चाहिये।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित चित्रांगदा चौधरी के लेख पर आधारित। 20 मार्च, 2019