आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ा जाए

Afeias
25 Mar 2020
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Date:25-03-20

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देश में आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ने के प्रयास होते रहे हैं। मुख्य धारा के दृष्टिकोण से आदिवासी जीवन की अनिश्चितता का गहरा संबंध है। सामान्य तौर पर, आदिवासियों के लिए किए जा रहे कार्यों को परोपकार की दृष्टि से देखा जाता है। इस दृष्टिकोण से बनाई गई नीतियाँ इसलिए बार-बार विफल हो जाती हैं, क्योंकि ये उन्हें आम नागरिकों के साथ खड़ा करने में कहीं कोई चूक करती रही हैं। इसका परिणाम यह होता है कि आदिवासियों की अपेक्षित सामाजिक-आर्थिक प्रगति नहीं हो पाती। यह न केवल उनकी, बल्कि पूरे राष्ट्र की हानि है।

उनके समृद्ध नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों से प्रजातांत्रिक मूल्यों को बहुत दृढ़ता मिल सकती है। आपसी सहयोग, विचार-विमर्श के माध्यम से निर्णय, प्रकृति व अन्य के साथ शांतिपूर्ण वास, पर्यावरण की रक्षा के लिए अपनाए गए उनके सदियों पुराने परन्तु खरे उतरने वाले तरीकों एवं नागरिक जीवन के उच्च आदर्शों को स्थापित करने वाले उनके अभ्यासों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हमारी तानाशाही वाली राजनीति, तुरंत लाभ वाले अर्थशास्त्र और अलग रहने के हमारे सामाजिक दृष्टिकोण ने आदिवासियों को हमसे बहुत दूर कर दिया है।

एक अध्ययन

एशियाटिक सोसायटी और प्रतीची फाउंडेशन के एक अध्ययन से पता चलता है कि सार्वजनिक और अकादमिक; दोनों ही क्षेत्रों में आदिवासियों के बारे में ज्ञान की बहुत कमी है। वे कौन हैं, कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है, उनकी सांस्कृतिक और भाषाई प्रथाएं क्या हैं, ये सभी प्रश्न हैं, जिनके प्रचलित उत्तर या तो अधूरे हैं या अस्पष्ट हैं। उदाहरण के रूप में, पश्चिम बंगाल सरकार ने अनुसूचित जनजाति के रूप में 40 समूहों की पहचान की है। इन्हें आमतौर पर आदिवासी या संथाल कहा जाता है, क्योंकि वहाँ अनुसूचित जनजाति में 47 प्रतिशत संथाल हैं।

उनके संसार से बाहर के लोगों की प्रभुत्वशाली शैली ने उन्हें दबा और पिछड़ा समझे जाने के लिए मजबूर कर दिया है। यहाँ तक कि उन्होंने अपने हीन जीवन को घातक दृष्टिकोण से देखने में भी परहेज नहीं किया। यही कारण है कि 2018 में पश्चिम बंगाल के झारग्राम में अचानक हुई आदिवासियों की मृत्यु पर कोई अधिक खोजबीन न करके क्षय रोग को कारण मान लिया गया। परन्तु वास्तविक कारण उनकी भूख और उससे जन्मी बीमारियाँ थीं। आसपास सरकारी कार्यालयों, खंड और जिला कार्यालयों के होते हुए भी उन्होंने मदद की गुहार नहीं की। ऐसा दृष्टिकोण उन्हें हाशिए पर धकेल रहा है। यहाँ तक कि सामाजिक जीवन की एक लंबी यात्रा के माध्यम से विकसित उनके मानवीय मूल्यों और अस्तित्व के लिए उनके संघर्ष की परंपरा के बावजूद वे अपने को अलग-थलग महसूस करते हैं।

प्रभाव

इसका एक दुष्परिणाम उनकी भाषाई विरासत के लोप के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि थोपी गई आधुनिकता भी उन्हें वह स्थान नहीं दिलवा सकती। बल्कि ऐसा करके उन्हें उनकी जड़ों की याद दिलाकर, और पीछे धकेल दिया जाता है। फिर से शोषण एवं उत्पीड़न का दौर शुरू हो जाता है। इसके कारण कई बार उनमें विरोध के सुर भी सुनाई देते हैं।

समय है कि आदिवासियों को एक ही वर्ग के रूप में न देखा जाए। प्रशासकीय स्तर पर, अलग-अलग क्षेत्रों के आधार पर उनके जीवन में आने वाली अलग-अलग कठिनाईयों को जान-समझकर उनकी विविधता को स्थापित किया जाए।

सरकार को चाहिए कि वह इस संदर्भ में बनाए गए संवैधानिक नियमों का पालन करे। वनाधिकार अधिनियम, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, मनरेगा अधिनियम तथा कुछ ऐसे कानूनों का उल्लंघन; जो उनके नैसर्गिक जीवन को हानि पहुँचाता है, खत्म किया जाए।

नीतियों के गठन से लेकर उनके कार्यान्वयन तक आदिवासियों को प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय भागीदार बनाया जाना चाहिए।

जरूरी हो गया है कि उनके प्रति समस्त दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाया जाए। उन्हें समस्या समझे जाने की जगह सह-नागरिक माना जाए। जीवन को अपनी तरह से जीने के उनके अधिकार का सम्मान करके हम देश के प्रजातंत्र को निश्चित रूप से मजबूत कर सकेंगे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित कुमार राणा और मनवेश सरकार के लेख पर आधारित। 9 मार्च, 2020