दिव्यांग अधिकार विधेयक

Afeias
29 Dec 2016
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Date: 29-12-16

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भारत ने दिव्यांग अधिकारों की संपुष्टि 2007 की संयुक्त राष्ट्र महासभा में कर दी थी। परंतु इसका अनुपालन अब हो सका है। इस विधेयक को लेकर दिव्यांगों के कुछ वर्ग में खुशी की लहर है, तो कुछ वर्ग अभी भी ऐसा मान रहे हैं कि इस विधेयक में उनकी समस्याओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।दिव्यांगों को हर क्षेत्र में अपनी अपंगता से संबंधित प्रमाण-पत्र की जरूरत होती है। यहाँ तक कि दिव्यांग अधिकार विधेयक के अंतर्गत शिकायत दर्ज कराने के लिए भी उन्हें प्रमाण-पत्र चाहिए होता है। दिव्यांग सशक्तीकरण विभाग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2011 की जनगणना की कुल दिव्यांग जनसंख्या में से कुल 49.5 प्रतिशत दिव्यांगों को ही प्रमाण-पत्र दिया जा सका है। पुराने दिव्यांंग विधेयक में इस प्रमाण-पत्र को जारी करने के लिए मात्र सात शर्तें जरूरी होती थीं, जिन्हें बढ़ाकर अब 21 कर दिया गया है। परेशानी इस बात की भी है कि एक राज्य द्वारा जारी किया गया प्रमाण-पत्र दूसरे राज्य में नहीं माना जाता है।

इसी संदर्भ में ईरा सिंघल का भी उराहरण लिया जा सकता है। 2010 में भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास कर लेने पर भी उन्हें नियुक्ति नहीं दी गई। 2014 में जब उन्होंने इस परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया, तब जाकर बात आगे बढ़ी। उनके साथ नौ अन्य दिव्यांग थे, जिन्होंने परीक्षा पास की थी और नियुक्ति के लिए उनके पास न्यायालय के आदेश भी थे। फिर भी उन्हें अस्वीकृत कर दिया गया था। इस लड़ाई को जीतने में उन्हें दो वर्ष लगे। तब जाकर उनमें से सात लोगों को नियुक्ति मिली।

दिव्यांगों के संबंध में 1995 के अधिनियम में इसका अनुपालन न होने की स्थिति में दंड संबंधी उपबंध का अभाव रहा है। फलस्वरूप इसका उल्लंघन करने वाले स्वतंत्र हो गए। वर्तमान विधेयक में इस बात का ध्यान रखा गया है। हालांकि इसके पहली बार उल्लंघन करने पर दंड के रूप में जेल की सजा को 10,000 रुपये की राशि में परिवर्तित कर दिया गया है। दूसरी बार या लगातार उल्लंघन की स्थिति में इस राशि को बढ़ाकर 50,000 से 5 लाख रुपये तक कर दिया गया है।

दिव्यांगों से संबंधित एक अन्य मसला रोजगार में उनके आरक्षण को लेकर रहा है। इस अधिनियम की वास्तविक प्रति में यह 5 प्रतिशत था, जिसे घटाकर 4 प्रतिशत कर दिया गया है। दिव्यांगों के लिए केन्द्रीय एवं राज्य आयोग की आवश्यकता को भी खारिज कर दिया गया है। साथ ही विधेयक की वास्तविक प्रति का एक खंड 3(3) कुछ चिंतनीय है। इसके अनुसार किसी दिव्यांग से दिव्यांग होने के आधार पर तब तक भेदभाव नहीं किया जा सकता जब तक कि यह सिद्ध न हो जाए कि उस भेदभाव या दी गई छूट के पीछे एक जायज कारण है। इस खंड के कारण ऐसा संदेह बना हुआ था कि इसे लागू करने वाली एजेंसी दिव्यांगों से भेदभाव करने के लिए इसका फायदा उठाएंगी।सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्री ने इस संबंध में आश्वासन दिया है कि ऐसा नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया है कि दिव्यांगों को कुल रिक्तियों में से आरक्षण दिया जाएगा। 1995 के अधिनियम में दरअसल इसकी गलत व्याख्या की गई थी और इसके चलते दिव्यांगों के लिए रिक्त पदों पर ही उनकी भर्ती की जा सकती थी। इस मामले में उच्चतम न्यायालय को मध्यस्थता करनी पड़ी थी।

नए विधेयक में दिव्यांग महिलाओं और बच्चों के लिए भी अलग प्रावधान हैं। सरकार द्वारा किए गए अन्य सुधारों ने भी विधेयक को बहुत मजबूत कर दिया है। विसंगतियों के बावजूद वर्तमान विधेयक 1995 के अधिनियम की तुलना में काफी बेहतर है। अब बस इसके लागू होने का इंतजार है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित मुरलीधरण के लेख पर आधारित। लेखक दिव्यांग अधिकारों के राष्ट्रीय मंच के सचिव हैं।