डिटेलिंग की ताकत-1

Afeias
14 May 2017
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अच्छे नम्बर लाकर अपनी रैंकिग बेहतर बनाने के लिए परीक्षा की तैयारी की अब आपकी नीति मूलतः विषयों की जानकारी पाने की नहीं, बल्कि प्राप्त जानकारियों को गहराई देकर, उन्हें मजबूत बनाकर स्वयं की क्षमता में वृद्धि करने की होनी चाहिए। क्षमता में इस वृद्धि के दो साफ और स्पष्ट भाग हैं। इसका पहला भाग मनोविज्ञान और व्यक्तित्व के उन छोटे-छोटे बिन्दुओं से बना हुआ है, जिनकी चर्चा मैं इससे पहले कर चुका हूँ। इसका दूसरा भाग विषय की तैयारी से जुड़ा हुआ है, जिसे आप सही अर्थों में सिविल सर्विस परीक्षा की रीयल प्रीप्रेरेशन, कह सकते हैं।

यही वह ‘प्रीप्रेरेशन’ है, जिस पर विद्यार्थियों का सबसे अधिक जोर होता है और जिसको लेकर उनमें सबसे अधिक घबराहट भी होती है। यहाँ वे बिल्कुल भी गलत नहीं होते। यह न केवल माहौल की ही देन है, बल्कि काफी कुछ सीमा तक सिविल सेवा परीक्षा की अपनी जरूरत भी है। लेकिन मुश्किल वहाँ होती है, जब विद्यार्थी माहौल की इतनी अधिक गिरफ्त में आ जाता है कि परीक्षा की जरूरतें उससे नजरअंदाज हो जाती हैं। मैं यहाँ आपको उसी वास्तविक स्थिति से परिचित कराने की कोशिश कर रहा हूँ।

यहाँ मैंने डिटेलिंग शब्द का इस्तेमाल किया है। मुझे नहीं मालूम कि हिन्दी में मैं इसके लिए कौन-सा शब्द रखूं, शायद ‘‘सूक्ष्म विवरण।’’ इससे पहले कि मैं इसके बारे में बात करूं, मैं पुनर्जागरण काल के इटली के रहने वाले महान चित्रकार एवं शिल्पकार माइकल एंजेलो का स्मरण करना चाहूंगा। वेटीकन सिटी के चर्च में बनाए गए उनके चित्रों तथा रोम के चौराहे पर लगी उनके द्वारा बनाई गई डेविड की प्रतिमा को मैंने देखा है और उनकी जीवंतता और भव्यता आज भी मेरे अन्दर उसी तरह मौजूद है, मानो कि ये सब कल की ही बात हां। आखिर उनके इन चित्रों और प्रतिमाओं में ऐसा है क्या? इसका विशेषज्ञ न होने के कारण कुछ भी बता पाना मेरे लिए संभव नहीं है। लेकिन जो कुछ भी मैं समझ पाया हूं, उसके लिए माइकल एंजेलो द्वारा कहे गए शब्दों को ही मैं यहाँ रखना चाहूँगा। मुझे लगता है कि उनके ये शब्द सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वालों के लिए मंत्र की तरह काम कर सकते हैं। उन्होंने कहा था-
‘‘छोटी-छोटी बातों से सम्पूर्णता आती है और सम्पूर्णता कोई छोटी बात नहीं है।’’

क्या अद्भूत बात कही है उस पुनर्जागरण काल के उस महान कलाकार ने। यहाँ दो शब्द गौरतलब हैं-‘छोटी-छोटी तथा सम्पूर्णता। यदि इसकी विस्तार से व्याख्या की जाए, तो इस पर अलग से पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। इसमें न केवल कलाकृतियों के लिए ही बल्कि जीवन की सफलता के लिए भी एक पूर्ण दर्शन समाया हुआ है। इससे पहले कि मैं डिटेलिंग शब्द पर आऊं, मैं एक अन्य बात कहना चाहूंगा और हो सकता है कि बाद में फिर डिटेलिंग शब्द के बारे में कुछ बताने की जरूरत ही न रह जाए।

सामान्यतया चाहे पढ़ने की बात हो या फिर उत्तर ही लिखने की बात ही क्यों न हो, हमारा सारा ध्यान मुख्य-मुख्य बातों पर होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुख्य बातें मुख्य ही होती हैं। उनके बिना हमारा काम चल ही नहीं सकता। चूंकि उसी पर शेष सारा ढांचा खड़ा रहता है, इसलिए हम उन मुख्य बातों के प्रति थोड़ी-सी भी लापरवाही बरतने का जोखिम ले ही नहीं सकते। इसलिए आप यह कतई न सोचें कि छोटी-छोटी बातों के महत्व को स्वीकार करने का अर्थ बड़ी-बड़ी बातों को अस्वीकार करना है। वैसे भी सामान्यतया बड़ी-बड़ी बातों को कोई अस्वीकार नहीं करता। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सामान्यतया छोटी-छोटी बातों को कोई भी स्वीकार नहीं करता। और यदि कोई गलती से या जानबूझकर स्वीकार कर लेता है, तो वह माइकल एंजेलो बन जाता है।

‘‘छोटी-छोटी बातों’’ का अर्थ है-वे बातें, वे चीज, जो अर्थहीन मालूम पड़ती हैं। सच में यह अर्थहीन होती भी हैं। यदि इन्हें वहाँ से हटा दिया जाए तो इससे शेष वस्तुओं पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर यदि आपके शयन कक्ष से दीवार पर टंगी हुई एक तस्वीर हटा दी जाए, तो उससे कमरे का न होना सिद्ध नहीं होगा। कमरा जिस काम के लिए बना हुआ है, वह काम होता रहेगा। इस तस्वीर के न होने का कोई विपरीत प्रभाव नहीं होगा। काम चलता रहेगा। इसलिए स्वाभाविक तौर पर लोग इन छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा कर जाते हैं।
यह तो हुई उस तस्वीर के न होने की स्थिति। लेकिन तब क्या होगा, यदि वह तस्वीर वहाँ हो। इसे यूं समझें कि पहले दीवार सपाट थी। अब वहाँ एक तस्वीर टांग दी गई है। उसके न होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था लेकिन क्या उसके होने से फर्क नहीं पड़ गया? निश्चित रूप से अब वह दीवार ज्यादा खूबसूरत हो गई है। देखने वाले की आँखों को अब वह दीवार भाने लगी है। यानी कि क्षण भर के लिए ही सही, लेकिन अब वह दीवार देखने वाले के मन में एक सौंदर्य का भाव पैदा कर देती है। यही कारण है कि लोग अपने घरों की इन्टीरियर डिजाईनिंग कराते हैं। अन्यथा तो इसके बिना भी काम चल रहा था और आगे भी काम चलता रहता।

तो यहाँ आप डिटेलिंग का एक अर्थ लगा सकते हैं-इंटीरियर डिजाईनिंग करवाना। निश्चित रूप से यहाँ जिस डिटेलिंग की बात करने जा रहे हैं, उसका संबंध किसी कमरे से नहीं, बल्कि हमारी अपनी पढ़ाई के तरीके से है। उसकी डिजाइनिंग कैसी होगी, उसके बारे में आगे बात करेंगे।
अब मैं आता हूँ, ‘सम्पूर्णता’ शब्द पर। जब हम सम्पूर्णता की बात करते हैं, तो दो प्रकार की सम्पूर्णता होती है। पहली सम्पूर्णता वह है, जो अपूर्ण न होने के कारण सम्पूर्ण है। यानी कि वह पूरी इसलिए है, क्योंकि उसमें कोई अधूरापन नहीं है। उसके होने के जो तत्व होते हैं, जो सिद्धान्त होते हैं, उसकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, वे सब कुछ वहाँ हैं। इसलिए वहाँ ऐसी किसी भी वस्तु का अभाव नहीं दिखाई देगा, जिसके आधार पर आप कह सकें कि वह सम्पूर्ण नहीं है। आम जीवन में सम्पूर्णता को हम इसी रूप में लेते हैं।

लेकिन यहाँ माइकल एंजेलो जिस सम्पूर्णता की बात कर रहे हैं, वह इससे कई कदम आगे की सम्पूर्णता है। दरअसल, यह एक सम्पूर्ण के भी सम्पूर्ण होने की स्थिति है। मकान बन गया, दरवाजे लग गए, लिपाई-पुताई हो गई, सब कुछ हो गया। अब यहाँ लोग आकर रह सकते हैं। मकान बनाने वाले से आप पूछिए, तो वह यही कहेगा कि ‘‘मकान पूरा हो गया है।’’ लेकिन जब आप वहाँ जाकर रहने लगेंगे, तो क्या आप उसे पूरा पाएंगे? मकान बनाने वाले की दृष्टि से वह पूरा हुआ था, लेकिन रहने वाले की दृष्टि से नहीं। एक चरण पूरा हुआ है, दूसरा चरण अभी पूरा होना है। रहने वाला व्यक्ति उसे अपने तरीके से जब पूरा करेगा, तब वह पहले वाली पूर्णता अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त होगी। लेकिन यह काम यहीं खत्म नहीं हुआ है। यह लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया है। पुरानी चीजें जाती रहेंगी और नई-नई चीजें आती रहेंगी। जब रहने के लिए नए लोग आएंगे, तो फिर से एक नई पूर्णता की जरूरत पड़ेगी और यह चलता रहेगा।

यहाँ थोड़ा सा ध्यान पूर्णता और सम्पूर्णता की ओर भी देना चाहिए। पूर्णता का मतलब है पूरा हो जाना और सम्पूर्णता का मतलब है, सभी तरफ से पूरा हो जाना। यानी कि अब उसमें करने के लिए कुछ विशेष रह नहीं गया है, बावजूद इसके कि अभी उसमें कुछ बाकी भी है। ज्ञान का विकास इसी प्रक्रिया के तहत होता है, ‘‘अभी कुछ बाकी है, अभी कुछ बाकी है।’’

आपने भारत के महान फिल्मकार सत्यजीत राय का नाम तो सुना ही होगा, भले ही उनके द्वारा बनाई गई कोई फिल्म देखी न हो। फिर भी आप मेरी इस बात पर विश्वास कर सकते हैं कि सत्यजीत राय की फिल्मों की जो सबसे बड़ी ताकत और सबसे बड़ी खूबी है, वह है-उनकी डिटेलिंग। वे अपने फिल्म के एक-एक दृश्य की छोटी-छोटी बातों पर इतने अधिक शोध करते थे और इतना अधिक ध्यान देते थे कि उस दृश्य में कोई भी कमी या गलती निकाल पाना असंभव-सा हो जाता था। सवाल यहाँ सही और गलत का नहीं है। यहाँ सवाल उसकी विश्वसनीयता का है और फिल्म के क्षेत्र में यह विश्वसनीयता ही उसे सम्पूर्णता प्रदान करती है। साथ ही उसे भव्य भी बनाती है।

आप राजा रवि वर्मा की बनाई हुई एक पेंटिंग देखिए। इसके बाद एक मधुबनी पेंटिंग देखिए। मैं यहाँ दोनों पेंटिंग की तुलना नहीं कर रहा हूँ। चूंकि दोनों अलग-अलग शैलियों के चित्र हैं, इसलिए दोनों की तुलना करना मूर्खता होगी। हाँ, दोनों की विशेषताएं जरूरी बताई जा सकती हैं। दोनों तरह के चित्र प्रभावशाली होते हैं और सराहे जाते हैं। दोनों की जीवन्तता अद्भुत होती है। मेहनत किसी में भी कम नहीं होती। लेकिन जहाँ तक डिटेलिंग का सवाल है, वह आपको राजा रवि वर्मा की तुलना में मधुबनी की पेंटिंग्स में अधिक मिलेंगी। वहाँ इतनी छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान देकर उसे तैयार किया जाता है कि लगता ही नहीं कि ऐसा भी हो सकता है। छोटे-छोटे डाटस्, उनके अलग-अलग रंग, छोटे-छोटे स्वरूप, उन छोटे-छोटे स्वरूपों में भी उकेरे गए बिल्कुल छोटे-छोटे दृश्य, सब कुछ देखकर विष्वास नहीं होता कि किसी व्यक्ति का हाथ ऐसे चित्र तैयार कर सकता है। सच पूछिए तो मधुबनी पेंटिंग की जो सुन्दरता है, वह स्वरूप की सुन्दरता उतनी नहीं है, जितनी कि डिटेलिंग की। जबकि राजा रवि वर्मा की पेंटिंग की जो सुन्दरता है, वह स्वरूप की सुन्दरता है, डिटेलिंग की नहीं। डिटेलिंग तो वहाँ भी है, लेकिन वे विराटता के स्तर की हैं।

इस प्रकार सामान्य रूप से हम चित्रकारी के मामले में डिटेलिंग का अर्थ लगा सकते हैं सूक्ष्म चित्रण। इंटीरीयर डिजाइन के मामले में सूक्ष्म सजावट तथा उत्तर लिखने के मामले में सूक्ष्म विवरण।

यहाँ हम जिस सूक्ष्मता की बात कर रहे हैं, आइए देखते हैं कि वह सूक्ष्मता होती क्या है और इससे होता क्या है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है,बड़ी-बड़ी चीजों पर, मोटी-मोटी बातों पर, उभरे हुए दृश्यों पर सभी का ध्यान जाता है। लेकिन जो अदृश्य होते हुए भी दृश्य हैं या यूं कह लें कि दृश्य होने के बावजूद अदृश्य हैं, वे जो बहुत सूक्ष्म हैं, लेकिन महत्वपूर्ण नहीं हैं फिर भी यदि वे न रहें, तो उनके सौंदर्य में कमी आ जाएगी, यही सूक्ष्मता है। यदि आप इस सूक्ष्मता के उपासक बन जाते हैं, तो न केवल सिविल सर्विस में ही आप चयनित उम्मीदवारों की लाइन में काफी आगे खड़े दिखाई देंगे, बल्कि इसका प्रभाव आपके जीवन के सभी क्षेत्रों पर पड़ेगा। इसका कारण है। उसका बहुत स्पष्ट कारण यह है कि जब आप किसी सूक्ष्म का विवरण देते हैं, तो उसे देखते और पढ़ते साथ ही देखने वाला या पढ़ने वाला चमत्कृत हो उठता है। चमत्कृत इसलिए हो उठता है क्योंकि यह उसे बिल्कुल नया मालूम पड़ता है। निश्चित रूप से इसका प्रभाव उस पर पड़ेगा ही।

जो भी उसको देख या पढ़ रहा है, उसने उसी के बारे में और भी कई जगह पढ़ा था। वह पहली बार आपके उत्तर को नहीं पढ़ रहा है। बल्कि सच तो यह है कि वह एक ही बैठक में न जाने कितने विद्यार्थियों के उत्तर पढ़ रहा है। हमारी जो शिक्षा पद्धति है और पढ़ने के लिए हमें जो सामग्री मिलती है, वह लगभग-लगभग एक जैसी ही होती है। इसलिए उन पढ़े हुए के आधार पर जब भी हम कुछ गढ़ते हैं, तो कम से कम तथ्यों के रूप में तो वे एक जैसे ही होते हैं। हाँ, भाषा के स्तर पर उनमें थोड़ा-बहुत अन्तर दिखाई दे सकता है। लेकिन यदि तथ्य एक जैसे हों, तो भाषा में इतनी ताकत नहीं होती कि वह उन्हें दूसरों से अलग कर सके, बशर्ते कि वह साहित्य का लेखन न हो या फिर निबन्ध न हो। ऐसी स्थिति में जो सर्वाधिक प्रभाव डालने वाला तत्व होता है, वह होता है-तथ्य। परीक्षक यह देखकर चमत्कृत हो जाता है कि यह नई बात आई कहाँ से। निश्चित रूप से यह जो नया है, जो सूक्ष्म विवरण के माध्यम से व्यक्त हुआ है, वह आपकी अपनी प्रतिभा की देन है। यदि हम इसे मौलिक प्रतिभा न भी माने, तो कम से कम यह तो मानने को विवश ही हैं कि आपने इसके लिए अतिरिक्त मेहनत की है और आपकी चेतना कुछ इस तरह की है कि आप दूसरों से कुछ अलग करना चाहते हैं, कुछ अलग दिखना चाहते हैं। यदि परीक्षक को इस बात पर यकीन हो जाता है और न्याय पर उसका विश्वास है, तो आपके साथ न्याय करने का उसके पास एक ही उपाय है कि वह आपको दूसरों से अधिक अंक दे।
यहाँ मैं जिस चमत्कृत होने की बात कह रहा हूँ, उसे आप कोई जादुई चमत्कार न समझें। यह बौद्धिक रूप से चमत्कृत होना है जिसे आप ‘प्रभावित होना’ कह सकते हैं। बल्कि यही कहना भी चाहिए।

जैसे ही हम डिटेलिंग के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही हमारे द्वारा बनाई गई रचना में दो बातें अपने-आप शामिल हो जाती हैं। ये दो बातें हैं-

  • वह सुन्दर हो जाती है, तथा
  • वह दूसरों से भिन्न हो जाती है।

मित्रो, जहाँ तक ज्ञान का सवाल है, वहाँ दूसरों से भिन्न होना आसान नहीं होता; खासकर उन लोगों से भिन्न होना तो नहीं ही जिन्हें सेलेक्शन की लिस्ट में स्थान मिल चुका है। तो आप करेंगे क्या? यहाँ तो संघर्ष दूसरों से स्वयं को भिन्न दिखाकर उनसे आगे निकल जाने का ही तो संघर्ष है। यदि आप अपनी बात को बहुत ही सूक्ष्म तरीके से रखने की कला को समझ लेंगे, तो निश्चित रूप से आपका स्वरूप कुछ न कुछ तो दूसरों से भिन्न हो ही जाएगा।
तो अब मैं आता हूँ उन महत्वपूर्ण बातों पर, जिसकोे आधार बनाकर आप अपने उत्तरों की डिटेलिंग कर सकेंगे।

डिटेलिंग के सिद्धांत

चित्रकार के हाथ में कूची होती है और वह रंगों के शेडस्, बिन्दुओं, रेखाओं, वृत्तों तथा अन्य न जाने किस -किस तरह की सूक्ष्म आकृतियों के द्वारा अपने चित्र में डिटेलिंग भरता है। यही सुविधा सिनेमा के निर्देशक के पास भी मौजूद होती है। यदि आप सिनेमा में डिटेलिंग के सिद्धांत और प्रभाव को जानना चाहते हैं, तो मैं आपको इसके लिए एक फिल्म का नाम बता सकता हूँ। हो सकता है कि आपने यह फिल्म देखी ही हो। यह फिल्म है-‘बैण्ड, बाजा, बाारात’। आप उसकी कहानी पर न जाए। उसकी फोटोग्राफी और संगीत पर भी ध्यान न दें। आप उसे केवल डिटेलिंग के रूप में देखें। आप पाएंगे कि वहाँ कहानी कुछ विशेष नहीं है। लेकिन छोटी-छोटी बातों के जितने सूक्ष्म और गहरे विवरण वहाँ देखने को मिलेंगे वे अद्भुत हैं। मुझे लगता है कि आपको यह फिल्म एक बार फिर से इस नजरिए से देखनी चाहिए। हो सकता है कि उसको देखने के बाद आपमें सिविल सेवा परीक्षा के लिए पढ़ाई करने और उत्तर लिखने की एक नई दृष्टि पैदा हो जाये। इस फिल्म को देखने के बाद आपके दिमाग में डिटेलिंग के सीधे-सीधे तीन आधारभूत सिद्धान्त जन्म लेंगे और ये ही तीन आधारभूत सिद्धान्त पढ़ने और उत्तर लिखने के मामले में भी उतने ही काम के हैं। तो हम अब थोड़ा इस पर बात करते हैं।

(i) विस्तार दें- सच पूछिए तो यह उप शीर्षक डिटेलिंग के मूल चरित्र से मेल नहीं खाता। जब हम किसी चीज को विस्तार देते हैं, तो स्वाभाविक रूप से सूक्ष्मता गायब हो जाती है, क्योंकि सूक्ष्मता तो विस्तार को एक छोटे-से बिन्दु पर समेट देने की प्रक्रिया होती है। लेकिन क्या ऐसा ही होता है? यहाँ इसे आपको थोड़ा अलग तरीके से समझना पड़ेगा। हम फोटोग्राफी का उदाहरण लेते हैं। जब आप अपने कैमरे से अधिक से अधिक दृश्यों को कैद करना चाहते हैं, तो यह एक विस्तृत दृश्य हुआ। निश्चित रूप से इसमें जो भी चीजें दिखाई पड़ रही होंगी, वे अपने-आप में ही इतनी छोटी होंगी कि उनके सूक्ष्म विवरणों को देख पाना संभव नहीं होगा। मान लीजिए कि उसमें एक मकान का चित्र है, तो आप उनके दरवाजों और खिड़कियों के डिजाइन को समझ नहीं पाएंगे। यह विस्तार का एक रूप हुआ।
लेकिन यहाँ मैं जिस विस्तार की बात कर रहा हूँ, वह फोकस करने वाला विस्तार है। यदि किसी नायक के चेहरे का चित्र दूर से खींचा जाए, तो आपको यह तो पता चल जाएगा कि हीरो कौन है, लेकिन उसके चेहरे पर आने वाले सूक्ष्म हावभाव उसके बाँए गाल पर पड़ने वाला छोटा-सा गड्डा, दाहिनी नाक से सटा हुआ छोटा-सा काला तिल और टूड्डी के पास बना हुआ छोटा सा पिम्ंपल दिखाई नहीं देगा। ये उसके चेहरे की सूक्ष्म पहचान हैं, जो डिटेलिंग में आनी चाहिए।

कहानी और उपन्यासों में आपने इस डिटेलिंग को महसूस किया होगा। यहाँ मैं महसूस करने की बात कह रहा हूँ, पढ़ने की बात नहीं। जब आप इस विवरण को सामान्य रूप से पढ़ेंगे, तब हो सकता है कि आपको ये सारे विवरण फालतू के मालूम पड़ें, उबाऊ लगें। आप सोच सकते हैं कि कहानी को छोड़कर यहाँ यह क्या फालतू की बातें होने लगी हैं। लेकिन यदि आप उन विवरणों को महसूस करेंगे, तब आपको आभास होगा कि यह डिटेलिंग ही तो इस पूरी की पूरी कथा की जान है। इनको पकड़ने के बाद ही कहानी पकड़ में आती है। अन्यथा तो कहानी का ऊपरी ढाँचा ही समझ में आ पाया है।

तो यदि फोटोग्राफर को उस नायक के चेहरे की डिटेलिंग दिखानी है, तो वह क्या करेगा? निश्चित रूप से वह अपने कैमरे के लैंस को नायक के चेहरे पर फोकस करेगा। यानी कि अपने कैमरे के लैंस सक नायक के चेहरे को अपने अन्दर समेट लेगा। फिर जब आप उस फोटोग्राफ को देखेंगे, तो उसमें आपको न केवल उस हीरो के चेहरे के ये छोटे-छोटे विवरण ही दिखाई देंगे, बल्कि उसके गाल पर हिलते हुए हल्के रोम और यहाँ तक कि उसके आँखों में तैरते हुए भावों को भी पकड़ने में आपको मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। इसलिए आपने देखा होगा कि फिल्मों में जब कोई भावनात्मक अभिव्यक्ति दिखानी होती है, तो कैमरा वहीं फोकस कर दिया जाता है, फिर चाहे वह अभिव्यक्ति लड़खड़ाती हुई चाल से संबंधित ही क्यों न हो।

यहाँ विस्तार से मेरा मतलब इसी तरह के विस्तार से है न कि व्यर्थ की ज्यादा से ज्यादा बातों को बटोर लेने से। यह एक विशेष टॉपिक पर स्वयं को केन्द्रित करके उसके बारे में सूक्ष्म विवरण जुटाने से है। सरल शब्दों में कह सकते हैं कि किसी एक टॉपिक पर आप कितनी अधिक से अधिक सामग्री जुटा सकते हैं, यही उसका विस्तार है। लेकिन यहाँ मैं सतर्क करना चाहूँगा कि अधिक से अधिक सामग्री जुटाने का अर्थ यह कतई नहीं है कि आपको उस पर रिसर्च करनी है और उसका विशेषज्ञ बनना है। हाँ, वैकल्पिक विषय में भले ही आप यह तकनीक अपना लें, लेकिन सामान्य अध्ययन में ऐसा बिल्कुल न करें। फिर आप उलझ जाएंगे। यहाँ आपको फोकस से विस्तार देना है। यूँ कह लीजिए कि विस्तार को फोकस में परिवर्तित करना है।

इसके दो चरण होंगे। पहले तो आप किसी तथ्य को विस्तार से समझेंगे, ताकि उसके सारे आयाम और कोण आपकी पकड़ में आ जाएं। इसके माध्यम से आपको उस टॉपिक का ज्ञान हो जाएगा। अधिकांश विद्यार्थी अपने-आपको यहीं तक सीमित कर लेते हैं। वैसे भी उनका ज्यादा जोर विस्तार में पढ़ाई करने पर होता है। मुझे लगता है कि यह तकनीक सूची में तो स्थान दिला सकती है। लेकिन यदि आपको ऊपर के कुछ लोगों में स्थान बनाना है, तो उसके लिए आपको इसके दूसरे चरण पर जाना होगा।

यह दूसरा चरण क्या है? पहले चरण में आपने टॉपिक को विस्तार दिया था। उसे फैलाया था। बिखेरने का काम किया था। अब उस बिखरे हुए को समेटने का काम करना है। यानी कि उस टॉपिक के एक-दो महत्वपूर्ण आयामों को पकड़कर उसको फिर से फैलाना है। आप किस आयाम को पकड़ेंगे, इसका निर्धारण इस बात से होगा कि उस टॉपिक पर परीक्षा में किसके अधिक पूछे जाने की संभावना रहती है। आप ऐसा कैसे करेंगे, इस पर मैं अलग से चर्चा करूँगा।

(ii) गहराई दें- यह विषय के लगातार नीचे उतरते चले जाने की पद्धति है। विस्तार दिखाई देता है। लेकिन गहराई दिखाई नहीं देती। जबकि वह होती तो है। दरअसल किसी भी विषय की गहराई इस बात पर निर्भर करती है कि आपने एक बिन्दु विशेष को भविष्य के कितने लम्बे काल तक के लिए विश्लेषित किया है। इसे आप दूरदर्शिता भी कह सकते हैं। व्यावहारिक जीवन में भी हम आमतौर पर इसका उपयोग करते हैं।
आपने बहुत से लोगों को यह कहते हुए सुना होगा, खुद भी कहा होगा कि ‘उसकी बात में कोई दम नहीं है’ या फिर यह भी कहा होगा कि ‘यार, क्या गजब की बात कही है, उसने।’’ ये दोनों क्या हैं? यहाँ केन्द्र में गहराई ही है। जिस बात में गहराई नहीं होगी, उसमें दम भी नहीं होगा। जिस बात में गहराई होगी, उसी के लिए आपका कथन होगा कि ‘क्या बात कही है’’। जब बात को केवल विस्तार में कहा जाए और उसका फोकस न रहे, तो वह बात बेदम हो जाती है। उसका प्रभाव खत्म हो जाता है लेकिन जब आप उस विस्तार को फोकस में बदल देंगे, तो स्वाभाविक रूप से आपके पास विचरण करने के लिए बहुत कम स्पेस रह जाएगा। लेकिन आपको विचरण तो करना है। आप ऐसा कैसे करेंगे?

मुम्बई में सबसे अधिक मल्टीस्टोरीड बिल्डिंग हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह महानगर तीन ओर समुद्र से घिरा हुआ है। केवल एक ही ओर से स्थल से जुड़ा है। यानी कि उसके पास खुद को फैलाने के लिए केवल एक ही दिशा है। शेष तीन दिशाएँ समुद्र ने अपने कब्जे में ले रखी हैं। ऐसे में यदि मुम्बई को फैलना है, तो उसके पास केवल तीन ही रास्ते बचते हैं। पहला तो यह कि वह स्थल भाग की ओर फैले। फैल ही रहा है। लेकिन उसकी भी तो एक सीमा होती है। अन्य दो उपाय ये बचते हैं कि या तो वह धरती के नीचे पाताल की ओर फैले या फिर आकाश की ओर। पाताल की ओर फैलना इतना आसान नहीं होता जितना कि आकाश की ओर फैलना। इसलिए मुम्बई आकाष की ओर उठती चली जा रही है। इस प्रकार वह शहर, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से विकसित हो सकता था, जनसंख्या की दृष्टि से सघन होने को बाध्य है। यह सघनता ही किसी विषय की गहराई है। और जब आप किसी टॉपिक की गहराई में उतरते है, तो स्वाभाविक रूप से उसमें सूक्ष्म विवरण शामिल होने लगते हैं। स्पेस की कमी के कारण आपके पास अन्य कोई विकल्प बचता ही नहीं है।

(iii) यथार्थवादिता- यह कलाओं के लिए भी जरूरी है और ज्ञान के लिए तो जरूरी है ही, खासकर सिविल सर्विस परीक्षा के ज्ञान के लिए। कलाओं में कल्पना की बहुत संभावना रहती है। वे जमकर इसका उपयोग करते भी हैं। लेकिन आपने अनुभव किया होगा कि कलाओं का वह रूप हमें सबसे अधिक प्रभावित करता है, जिनकी कल्पनाओं के पंखों का सम्पर्क यथार्थ की जमीन से होता है। यहाँ आपको कल्पना और यथार्थ का एक ऐसा अद्भूत मिश्रण मिलता है कि कल्पना यथार्थ लगने लगती है और यथार्थ कल्पना। पता ही नहीं चलता कि कौन क्या है, बावजूद इसके कि इसमें ये दोनों होते हैं। ऊपर मैंने ‘बैण्ड, बाजा, बारात’ फिल्म की जो बात कही है, उसमें आपको इसका कमाल देखने को मिल जाएगा। वह कोई डाक्यूमेन्ट्री नहीं है। लेकिन वह डाक्यूमेन्ट्री से कम भी नहीं है। आप उसे डाक्यूमेन्ट्री जैसी कह सकते हैं। यहाँ यथार्थवादी से मेरा मतलब इसी तरह की डिटेलिंग से है।

जब आप इस यथार्थवादिता का उपयोग ज्ञान के क्षेत्र में करेंगे, जिसे मैं यहाँ सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी कहना चाहूँगा, तो उसका संबंध सीधे-सीधे तार्किकता से होगा। जब भी हम किसी तथ्य की गहराई में उतरते हैं, तब हमारे पास नीचे उतरने के लिए तीन तरह की सीढ़ियाँ होती हैं। पहली सीढ़ी तथ्यों की होती है। इन तथ्यों को हम विस्तार के माध्यम से हासिल करते हैं। जब आप एक ही टॉपिक पर अलग-अलग पढ़ते हैं, तो आपके पास अलग-अलग तथ्य इकट्ठे होते जाते हैं। दूसरी सीढ़ी है कल्पना की। ऐसा नहीं है कि ज्ञान के क्षेत्र में कल्पना का कोई स्थान ही नहीं होता। इससे पहले जिसे मैंने ‘दूरदर्शिता’ कहा है, वह दूरदर्शिता एक प्रकार की कल्पना ही होती है। यह बात अलग है कि वह कल्पना पूरी तरह से भावनापरक नहीं होती, बल्कि उसमें ज्ञान का बोध भी शामिल होता है। लेकिन यह जरूरी नहीं होता कि ज्ञान का वह बोध गणित या विज्ञान की तरह बिल्कुल परफेक्ट ही हो।

अब बचती है तीसरी सीढ़ी, जो वस्तुतः तर्क की सीढ़ी होती है। यह आपके स्वयं के द्वारा निर्मित सीढ़ी होगी। पहले की दो सीढ़ियों के अभाव में आप इस तीसरी सीढ़ी का निर्माण नहीं कर सकते। दिमाग में तर्क की फसल तभी लहलहा सकती है, जब आपके पास तथ्य हों और तथ्यों को मथकर सतह से नीचे उतरने की क्षमता हा।े अन्यथा तथ्य जमीन की सतह पर पड़े-पड़े उसी तरह खत्म हो जाएंगे, जैसे कि बीज जमीन की ऊपरी सतह पर पड़े रहने से नष्ट हो जाता है। उसे मिट्टी की कुछ न कुछ गहराई तो चाहिए ही।

जब आप अपनी बात कहने के लिए तर्क का सहारा लेते हैं, तो भले ही वे तर्क काल्पनिक मालूम पड़ें, लेकिन आप अपनी बात को सिद्ध करने के पक्ष में जो तथ्य प्रस्तुत करते हैं और उन तथ्यों के जिस तरह से विष्लेषण पेश करते हैं, वे निश्चित रूप से सामने वाले को यह विश्वास दिला देता है कि ऐसा भी हो सकता है, भले ही वह यह विश्वास न दिला पाए कि ऐसा ही होगा। लेकिन यह कम बड़ी बात नहीं होती। ज्ञान का सारा क्षेत्र इसी के कमाल से तो पटा पड़ा है। लेकिन यहाँ आपको इस बात का ध्यान रखना होगा कि तर्क केवल तर्क के लिए नहीं होने चाहिए। ऐसा होने पर वह तर्क कुतर्क का रूप ले लेता है और मैं समझता हूँ कि कुतर्क करने से बेहतर तो यही है कि तर्क ही न किया जाए।

हो सकता है कि इतना सब पढ़ने के बाद आपके दिमाग में यह प्रश्न उठे कि इस तर्क में डिटेलिंग तो कहीं आई ही नहीं। मैं आपके इस प्रश्न का भी उत्तर देना चाहूँगा, किन्तु बहुत संक्षेप में। पहली बात तो यह कि यदि आप डिटेलिंग की पद्धति नहीं अपनाएंगे, तो तर्क तक पहुँचना ही मुश्किल हो जाएगा। तर्क दिमाग में आते ही डिटेलिंग से हैं। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता डिटेलिंग से ही होकर गुजरता है। दूसरी बात यह कि तर्क अपने-आपमें ही एक प्रकार की डिटेलिंग है। उदाहरण के लिए आप कोई भी एक निष्कर्ष निकालते हैं। फिर उस निष्कर्ष को सिद्ध करने के लिए तथ्य जुटाते हैं।फिर इकट्ठे किए गए इन तथ्यों पर कई-कई कोणों से विचार करते हैं। विचार करने से प्राप्त आप उन निष्कर्षों को छांटकर अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं, जो आपको उपयोगी मालूम पड़ते हैं। मेरा प्रश्न यहाँ यह है कि डिटेलिंग में गए बिना यह सब संभव कैसे होगा?

इसके ठीक विपरीत स्थिति भी हो सकती है। वह यह कि आप पहले निष्कर्ष नहीं निकालते। आप तथ्य इकट्ठे करते हैं। उनका अध्ययन करते हैं। उन्हें जाँचते-परखते हैं। फिर जो आपकी पकड़ में आता है, उसे अपना निष्कर्ष बना लेते हैं। यहाँ भी वही प्रश्न है कि यदि आप इन सबकी डिटेलिंग नहीं करेंगे, तो फिर आप अपने निष्कर्ष निकालेंगे कैसे? यह केवल डिटेलिंग से भी संभव हो सकेगा।

अंत में मैं एक बात और कहना चाहूँगा। वह यह कि हम दो तत्वों से मिलकर बने हैं-बुद्धि और भावना। ज्ञान के क्षेत्र में लगातार ये दोनों अपना-अपना काम करते रहते हैं, अलग-अलग भी और दोनों एक साथ भी। इसलिए आप बहुत अधिक इस बात के चक्कर में न पड़ें कि डिटेलिंग में आपको सिर्फ बुद्धि का इस्तेमाल करना है, भावना का नहीं। याद रखें कि भावनाएँ आपकी बुद्धि को उभरने देने के लिए स्पेस उपलब्ध कराने का काम करती हैं। यहाँ आपको सावधानी केवल इतनी रखनी पड़ती है कि आपको यह जो स्पेस मिल रहा है, वह अव्यावहारिक न हो जाए। कम से कम विश्वास करने के स्तर पर तो हो ही। यह बात अलग है कि यदि आपके निष्कर्ष को लागू किया जाए, तो वह अव्यावहारिक सिद्ध होगा। फिर भी वह इतना व्यावहारिक तो मालूम पड़ना ही चाहिए कि उसे लागू करने के बारे में विचार किया जा सके। यानी कि यथार्थ के स्तर पर अव्यावहारिक होने के बावजूद वैचारिक स्तर पर वह व्यावहारिक लगना चाहिए। इसलिए यथार्थवादिता को आप इस रूप में न लें कि उसका संभव होना अनिवार्य ही हो। बल्कि इस रूप में लें कि वह संभावनाओं का आभास देने वाला लगे।

भले ही यह विवरण थोड़ा लम्बा हो गया, लेकिन मुझे ऐसा करना ही चाहिए था। मैंने ऐसा जानबूझकर किया है। सच पूछिए तो मैं बिन्दु-बिन्दु के आधार पर टिप्स देने की टेकनिक पर जरा भी विश्वास नहीं करता। मैं इस बात के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि यदि एक बार विद्यार्थी किसी भी सिद्धान्त को अच्छी तरह समझकर, उसे पूरी तरह आत्मसात कर लेता है, तो फिर वे सिद्धान्त उसके जीवन में स्वाभाविक तौर पर उतरने लगते हैं। किसी भी सिद्धान्त को अच्छी तरह समझा जा सके, इसके लिए आवश्यक होता है कि उस सिद्धान्त को विस्तार के साथ, उलट-पुलटकर, कई-कई कोणों से समझाया जाए। इस तरह समझाना भी एक बड़ी चुनौती होती है, और मुझे चुनौतियाँ बहुत प्रिय हैं। हो सकता है कि मेरे विस्तार से समझाने की इस पद्धति को आप ‘टाइम कील’ करना मानें और आप मुझे इस बात के लिए कोेसे भीं कि आखिर इस छोटी-सी बात के लिए इतने अधिक पन्ने रंगकर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की जरूरत क्या थी। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। हो सकता है कि आगे चलकर आप भी इसे ऐसा न मानें। फिलहाल तो मैं केवल इतना ही अर्ज कर सकता हूँ कि आप विस्तार से समझने और समझाने की मेरी इस पद्धति पर थोड़ा-सा विश्वास करके मेरा साथ देने का फैसला करें। तुरन्त भले ही न सही, लेकिन कुछ समय के बाद आप पाएंगे कि यह पद्धति आपके लिए कितनी अधिक उपयोगी रही है।

मित्रो, यह सब विस्तृत विवरण के बाद अगले अंक में आऊंगा उन उपायों पर, जो सीधे-सीधे डिटेलिंग में आपकी मदद करेंगे।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.