चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सवाल – 2
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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी याचिका पर उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ की सुनवाई को लेकर चर्चा जोरों पर बनी हुई है। हमने भी अपने एक लेख में इससे संबंधित कुछ तथ्य साझा किए थे। इस लेख में आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर दी गई विशेषज्ञों की टिप्पणीयों के बारे में जानते हैं। कुछ बिंदु –
- अधिकांश लोगों का यही मानना है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसी व्यवस्था की जानी चाहिए। इसमें प्रधानमंत्री, संसद में विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश शामिल हों।
- इस नियुक्ति प्रणाली की मांग बहुत वर्षों से की जा रही है। न्यायपालिका भी इसी उम्मीद में है कि सरकार, संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार इस प्रकार की नियुक्तियों के लिए कोई कानून बनाएगी। लेकिन पिछले 72 वर्षों में ऐसा नहीं किया गया। क्यों ?
- इसका कारण स्पष्ट है। चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक निकाय पर सरकार अपना पूर्ण नियंत्रण बनाए रखना चाहती है। लेकिन संविधान के अनुसार इसे सरकार से अलग, स्वतंत्र निकाय के रूप में काम करना चाहिए। इस मामले को लेकर अनेक समिति और आयोग बनाए गए (इनमें प्रसिद्ध गोस्वामी समिति भी एक है।) सरकार ने इन सबकी सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
- सरकारों की इस मनमानी के पीछे समस्या यह है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर न तो संविधान और न ही 1991 के चुनाव आयोग अधिनियम में उन मुद्दों को लेकर स्पष्टता है, जिन पर होनी चाहिए थी।
उदाहरण के लिए, आयुक्तों को 65 वर्ष तक ही पद पर बने रहने का अधिकार है। सरकार ने इस बिंदु का लाभ उठाते हुए इतने वरिष्ठ लोगों की नियुक्ति की परंपरा बना ली है कि वे एक या दो वर्ष में ही सेवामुक्त हो जाते हैं। सरकार आखिर ऐसा क्यों करती है ?
नियमों के अनुसार प्रशासनिक सेवा के किसी व्यक्ति को ही आयुक्त पद पर नियुक्त करने की बाध्यता नहीं है। चूंकि जिलों में लंबे समय तक काम करते हुए इन अधिकारियों को चुनाव करवाने का अनुभव ज्यादा होता है, इसलिए इनको प्राथमिकता दी जाती है। इन अधिकारियों की नियुक्ति 58.59 वर्ष में न करने की परंपरा इसलिए पड़ी कि सरकार इन्हें छः वर्षों तक चुनाव आयुक्त बने रहकर अपनी मनमानी करने की शक्ति नहीं देना चाहती है। इस परंपरा के चलते वरिष्ठ अधिकारियों को ही आयुक्त बनने का मौका मिलने लगा है। लेकिन संविधान में कहीं ऐसा कोई उल्लेख नहीं है।
न्यायपालिका तो संविधान की रक्षक है, और उसने इस मामले को गंभीरता से लेकर सही कदम उठाया है। दूसरी ओर, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, हमारे संविधान का मूल आधार है। अतः इसे सुलझाया जाना बहुत जरूरी है। उम्मीद की जा सकती है कि देश के प्रबुद्धजन और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ इस मामले में कोई सही हल निकाल सकेंगे।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित चर्चा पर आधारित। 2 दिसंबर, 2022