उच्चतम न्यायालय की विफलता कहाँ है

Afeias
23 Feb 2022
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पिछले कुछ वर्षों में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ दूरगामी निर्णयों में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया ; समलैंगिक यौन आचरण को अपराध मुक्त किया ; ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी है, और तीन तलाक को अवैध घोषित किया है। ये निर्णय हमारे संविधान में संशोधित स्वतंत्रता और समानता जैसे गणतांत्रिक मूल्यों में विश्वास को मजबूत करते हैं।

इसके साथ ही कई ऐसे संवैधानिक और अन्य कानूनी महत्वपूर्ण मामले हैं, जिनका निर्णय लंबित पड़ा हुआ है। इन मामलों का आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों और गणतंत्रात्मक मूल्यों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण मामले इस प्रकार हैं –

  1. नागरिकता अधिनियम, 2019 की संवैधानिकता को चुनौती।
  1. अनुच्छेद 370 को प्रभावी रूप से कमजोर करके, जम्मू और कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करना।
  1. सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण।
  1. विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ। इसमें काले धन पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से कई गई विमुद्रीकरण की वैधता को चुनौती दी गई है।
  1. चुनावी बांड योजना को संवैधानिक चुनौती।

प्रमुख संवैधानिक मामलों को समयबद्ध तरीके से तय करने में विफल उच्चतम न्यायालय ने अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की है। न्यायालय को अपने संवैधानिक कर्तव्य का पालन करते हुए, प्रत्येक मामले में अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति का दृढ़ता से प्रयोग करना चाहिए। अन्यथा कड़े संघर्ष से प्राप्त भारत का संविधान गंभीर संकट में पड़ सकता है।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित प्रभास रंजन के लेख पर आधारित। 1 फरवरी, 2022