29-01-2022 (Important News Clippings)
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Date:29-01-22
At the Centre
India must stay in step with the changes in the Central Asian region
Editorial
As the joint statement at the end of the India-Central Asia virtual summit on Thursday noted, ties between India and the region have been historically close, with “civilisational, cultural, trade and people-to-people linkages”, but the lack of access to land routes, and the situation in Afghanistan are among the biggest challenges. Hosted by Prime Minister Narendra Modi with the Presidents of the five Central Asian Republics (CARs), it was a first, building on years of dialogue. The summit also came after the meeting of NSAs in Delhi, where they built on several common themes of concern and priority. To begin with, there is the problem of routing trade — a paltry $2 billion, spent mostly on Kazakhstan’s energy exports to India. In comparison, China’s CAR trade figures have exceeded $41 billion — they could double by 2030 — apart from the billions of dollars invested in the Belt and Road Initiative. With Pakistan denying India transit trade, New Delhi’s other option is to smoothen the route through Iran’s Chabahar port, but that will involve greater investment in rail and road routes to Iran’s northern boundaries with the CARs, something India is hesitant to do in the face of U.S. sanctions. A third option is to use the Russia-Iran International North-South Transport Corridor via Bandar Abbas port, but this is not fully operational and at least two CARs (Uzbekistan and Turkmenistan) are not members. India too, has dragged its feet over TAPI gas pipeline plans (Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan-India), due to supply guarantees, given the tensions with Pakistan. Finally, there is Afghanistan: the tenuous link between Central Asia and South Asia, where after the Taliban takeover, there is no official government, a humanitarian crisis is building, and there are worries of terrorism and radicalism spilling over its boundaries. Each theme has been outlined in the summit joint statement as areas to work upon. They have also agreed to more structured engagement, including the setting up of joint working groups, on Afghanistan and Chabahar, and more educational and cultural opportunities.
While the attempt by India to institutionalise exchanges and press the pedal on trade, investment and development partnerships with the CARs is timely, it is by no means the only country strengthening its ties here. While Russia is the most strategic player, China is now the biggest development and infrastructure partner to the countries. The CAR Presidents held a similar virtual summit with Chinese President Xi Jinping earlier. Pakistan has also increased its outreach to the CARs, signing transit trade agreements, offering trade access to the Indian Ocean at Gwadar and Karachi. India will need to move nimbly to ensure it stays in step with the changes, and to make certain the future of ties more closely resembles the deep ties of the distant past.
मजदूरों की इन समस्याओं के स्थाई हल तलाशने होंगे
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से पूछा कि भुखमरी से देश में कितने लोगों की मौत हुई? अटॉर्नी जनरल का कहना था कि भुखमरी से कोई नहीं मरा लेकिन उनके पास इसका कोई अध्ययन नहीं। यह सच है कि सरकारी आंकड़ों में भूख से किसी मौत का रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन इसका कारण यह है कि भूख से कोई एक दिन में नहीं मरता बल्कि मरने की वजह पोषक तत्वों का शरीर में गिरता स्तर और उन अभावों से पैदा हुई बीमारियां होती हैं। सुप्रीम कोर्ट इस बात का संज्ञान ले रहा था कि इस भयंकर ठिठुरन में फुटपाथ पर बेसहारा लोग अक्सर गुमनामी में मर जाते हैं लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं देता। कोर्ट को सरकार से अपेक्षा थी कि दक्षिणी राज्यों की भांति देश में सभी जगह मुफ्त किचन चलाए जाएं। लेकिन क्या यह स्थाई समाधान है? क्यों लोग फुटपाथ को अपना घर और भीख को आजीविका बनाते हैं? इनकी संख्या लाखों में है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था अब और आबादी नहीं झेल सकती, लिहाजा लोग बेचारगी में शहरों में श्रम बेचने आते हैं। बड़े शहरों के लेबर चौराहों पर हजारों की तादाद में ये श्रमिक हर आने वाले वाहन को आशा से देखते हुए उन्हें घेर लेते हैं। उस एक दिन के लिए दस प्रतिशत ही खुशकिस्मत होते हैं। बाकी 90 फीसदी वापस लौट जाते हैं बच्चों को फिर भूखा सुलाने के लिए। कुछ दिन की भुखमरी के बाद ऐसे श्रमिक भीख मांगने वालों की दुनिया में चले जाते हैं। कहने को तो शेल्टर-होम हैं लेकिन अक्षमता और भ्रष्टाचार उन्हें मनुष्य के रहने लायक नहीं छोड़ता। सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है पर स्थाई हल तलाशना होगा।
आरक्षण पर सही राय
संपादकीय
प्रोन्नति में अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण को लेकर उच्चतम न्यायालय ने अपने बहुप्रतीक्षित फैसले में यह जो राय व्यक्त की कि आरक्षण से पहले उचित प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाना जरूरी है और प्रतिनिधित्व के बारे में एक तय अवधि में समीक्षा होनी चाहिए वह समय की मांग के अनुरूप है। यदि आरक्षण की व्यवस्था की गई है तो फिर यह भी देखना आवश्यक है कि उसका लाभ संबंधित वर्गो को सही तरह मिल रहा है या नहीं? इसके साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो समाज में वास्तव में पिछड़े-वंचित तबके हैं उनको सरकारी सेवाओं अथवा शिक्षा में उचित प्रतिनिधित्व मिले।यह सुनिश्चित करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि लगातार इस तरह की शिकायतें सामने आ रही हैं कि आरक्षित पदों में वांछित भर्तियां नहीं हो रही हैं। ऐसा क्यों है, इन कारणों की तह तक जाने की जरूरत है ताकि इस तरह की शिकायतों का सिलसिला थमे और संबंधित वर्गो को इसका आभास हो कि सामाजिक न्याय की दिशा में निरंतर सही तरीके से कार्य हो रहा है।
यह बार-बार कहा जा चुका है कि जब तक समाज में असमानता है और शोषित-वंचित वर्गो का शिक्षा और सरकारी सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है तब तक आरक्षण की व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, लेकिन इसी के साथ समय-समय पर इसकी समीक्षा भी होनी चाहिए कि जिन उद्देश्यों के लिए इस व्यवस्था का निर्माण किया गया था उनकी पूर्ति हो रही है या नहीं? इसी तरह यह भी देखे जाने की जरूरत है कि आरक्षण की व्यवस्था से किन वर्गो को कितना लाभ मिला है? इस सबकी समीक्षा करने में हर्ज नहीं, क्योंकि यदि समीक्षा सही तरह होगी तो आरक्षण की व्यवस्था में सुधार करने में सहायता मिलेगी। कोई भी व्यवस्था बदलाव के बिना अनंतकाल तक कायम नहीं रह सकती। जो लोग आरक्षण की समीक्षा की चर्चा मात्र से भड़क उठते हैं या दुष्प्रचार करने लगते हैं उन्हें भी यह सोचना होगा कि किसी व्यवस्था की समय-समय पर समीक्षा उस व्यवस्था के हित में ही होती है। बेहतर हो कि नीति-नियंता इस पर ध्यान दें कि आरक्षण जैसे उपाय को बदलती परिस्थिति और भावी चुनौतियों के लिहाज से कैसे आगे बढ़ाया जाए जिससे वास्तविक कमजोर-वंचित वर्गो को सही अर्थो में लाभ मिले और जिन वर्गो में इसके प्रति एक तरह का असंतोष का भाव है उनकी चिंताओं का भी समाधान हो। यह तब होगा जब आरक्षण की व्यवस्था पर राजनीतिक हितचिंतन को परे रखकर नीर-क्षीर तरीके से विचार-विमर्श किया जाएगा।
Date:29-01-22
प्रतिनियुक्तियों पर अनावश्यक टकराव
प्रकाश सिंह, ( लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस एवं सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रहे हैं )
केंद्र और राज्यों में विभिन्न विषयों पर लगातार बढ़ता टकराव अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। बीते दिनों सीमा सुरक्षा बल के कार्य क्षेत्र विस्तार को लेकर कुछ राज्यों ने आपत्ति की थी। अब अखिल भारतीय सेवाएं, जिनमें आइएएस, आइपीएस और आइएफएस (भारतीय वन सेवा) जैसी सेवाएं आती हैं, के अधिकारियों की केंद्र में प्रतिनियुक्ति को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। संविधान के अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय सेवाओं के गठन की व्यवस्था है। उस समय केवल आइएएस और आइपीएस ही दो अखिल भारतीय सेवाएं थीं, फिर 1966 में आइएफएस का गठन किया गया। इन सेवाओं के गठन का मुख्य उद्देश्य संपूर्ण भारत में प्रशासनिक एकरूपता और केंद्र एवं राज्यों के अधिकारियों में तालमेल बनाए रखना था। आइएएस, आइपीएस और आइएफएस जैसी अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों का चयन, प्रशिक्षण और कैडर आवंटन केंद्र सरकार करती है। राज्य कैडर मिलते ही अधिकारी प्रशासनिक मामलों में राज्य सरकार के अधीन हो जाते हैं। केंद्र सरकार अपनी आवश्यकतानुसार इन अधिकारियों को राज्यों से लेती है। इसके लिए प्रत्येक राज्य में एक केंद्रीय डेपुटेशन रिजर्व होता है, जो सीनियर ड्यूटी पोस्टों का 40 प्रतिशत होता है। इसी कोटे से केंद्र को अपनी व्यवस्था के लिए अधिकारी मिलते हैं।
वर्तमान में केंद्र राज्यों से हर वर्ष ऐसे अधिकारियों की सूची मांगता है जो केंद्र में आने के इच्छुक होते हैं। इसी सूची से केंद्र अधिकारियों का चयन करता है। दुर्भाग्य से विगत कई वर्षों से यह सूची छोटी होती जा रही है। कई बार ऐसा भी होता है कि अधिकारी तो केंद्र में जाना चाहते हैं और केंद्र भी उन्हें लेना चाहता है, परंतु राज्य सरकार कतिपय कारणों से उन्हें कार्यमुक्त नहीं करती। इसका ही नतीजा है कि धीरे-धीरे केंद्र में अधिकारियों की रिक्तियां भारी संख्या में बढ़ गई हैं। इससे केंद्र को अपना तंत्र चलाने में परेशानी हो रही रही है।
कुछ उदाहरणों से स्थिति की गंभीरता स्पष्ट हो जाएगी। वर्ष 2011 में आइएएस संवर्ग के कुल 309 अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर थे। फिलहाल यह संख्या घटकर 223 रह गई है, यानी एक दशक के दौरान प्रतिनियुक्ति पर गए अधिकारियों का आंकड़ा 25 प्रतिशत से घटकर 18 प्रतिशत रह गया है। वर्ष 2014 में उप-सचिव और निदेशक स्तर पर 621 अधिकारी थे। उनकी संख्या अब बढ़कर 1130 हो गई है। इसके बावजूद प्रतिनियुक्ति पर गए अधिकारियों की संख्या 117 से घटकर 114 रह गई है।
भारतीय पुलिस सेवा यानी आइपीएस में तो शायद स्थिति और भी खराब है। देश में आइपीएस के कुल 4984 पद स्वीकृत हैं, उनमें भी 4074 अधिकारी ही उपलब्ध है। मानक के अनुसार इनमें से 1075 अधिकारी सेंट्रल डेपुटेशन रिजर्व में होने चाहिए, परंतु केवल 442 अधिकारी ही प्रतिनियुक्ति पर हैं। यानी 633 अधिकारियों की कमी है। इसमें सबसे अधिक कटौती बंगाल ने की है जिसने केवल 16 प्रतिशत अधिकारी भेजे हैं, वहीं हरियाणा ने 16.13 प्रतिशत, तेलंगाना ने 20 प्रतिशत और कर्नाटक ने 21.74 प्रतिशत। फलस्वरूप केंद्रीय पुलिस संगठनों में भारी संख्या में रिक्तियां हो गई हैं। सीमा सुरक्षा बल में डीआइजी रैंक पर आइपीएस के 26 स्वीकृत पदों में 24 रिक्त हैं। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में भी डीआईजी के 38 स्वीकृत पदों में से 36 रिक्त हैं। सीबीआइ, आइबी व अन्य केंद्रीय पुलिस संगठनों में भी कमोबेश यही कहानी है।
भारत सरकार के प्रशिक्षण एवं कार्मिक विभाग ने 20 दिसंबर, 2021 को कैडर प्रबंधन में आ रही दिक्कतों को केंद्र में रखकर राज्य सरकारों को एक पत्र में लिखा कि आइएएस कैडर रूल्स में कुछ परिवर्तन प्रस्तावित हैं। राज्य सरकारें केंद्र सरकार को प्रतिनियुक्ति के लिए सेंट्रल डेपुटेशन रिजर्व के अनुसार निर्धारित संख्या में, स्वीकृति के अंतर्गत वास्तविक संख्या को देखते हुए, एक समय सीमा में अधिकारी उपलब्ध कराएंगी। कितने अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में जाना है, इस बारे में केंद्र सरकार, राज्य सरकारों की राय लेने के बाद निर्णय करेगी। बंगाल, केरल, तमिलनाडु और झारखंड समेत कुल 11 राज्यों ने केंद्र के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि इससे संघीय ढांचे पर प्रहार होगा।
इस विषय में भारत सरकार ने 12 जनवरी को एक और पत्र लिखा। उसमें कहा गया कि कुछ परिस्थितियों में केंद्र को राज्य से किसी विशेष अधिकारी की आवश्यकता होगी तो राज्य सरकारों को उक्त अधिकारी को उपलब्ध कराना होगा। इससे अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों में बेचैनी हुई है। यह इसलिए, क्योंकि केंद्र और राज्य के बीच टकराव में यदि केंद्र किसी अधिकारी से कुपित होता है और वह उसे केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए मांग ले, तो संभव है कि ऐसे अधिकारी को प्रताडि़त किया जाए। इससे पहले 20 दिसंबर को केंद्र ने जो संशोधन प्रस्तावित किए थे, वे उचित थे और उनका विरोध राजनीतिक कारणों से ही हो रहा है। परंतु दूसरे चरण के संशोधन केंद्र को वापस लेने चाहिए ताकि अधिकारियों के मन में उत्पीडऩ की आशंका न रहे।
इसी क्रम में भारत सरकार ने 17 जनवरी को एक और पत्र जारी कर स्पष्ट किया है कि जो संशोधन आइएएस कैडर रूल्स में प्रस्तावित किए गए थे, तदनुसार वही संशोधन आइपीएस और आइएफएस कैडर रूल्स में भी किए जाएंगे। यह उचित है, क्योंकि अखिल भारतीय सेवाओं के कैडर रूल्स में एकरूपता होनी चाहिए। यह केंद्र का दायित्व है। सरकारिया आयोग ने भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि अखिल भारतीय सेवाओं के कैडर मैनेजमेंट में केंद्र सरकार को ही अंतिम निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए।
अखिल भारतीय सेवाओं की वर्तमान स्थिति अत्यंत शोचनीय है, जिनमें तमाम सुधार आवश्यक हैं। यह भी स्मरण रहे कि राज्य सरकारों के असहयोग से केंद्र सरकार की गाड़ी को लडख़ड़ाने नहीं दिया जा सकता। राज्य सरकारों को नियमों के दायरे में केंद्र को निर्धारित संख्या में अधिकारी उपलब्ध कराने चाहिए। राज्य में ही टिके रहने की सामंती मानसिकता के अधिकारियों को बाहर जाने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। अखिल भारतीय सेवा का सदस्य होने का अर्थ ही यही है कि आप देश में कहीं भी सेवा देने के लिए तत्पर रहें।
Date:29-01-22
संसदीय समितियों में हितों का टकराव
तमाल बंद्योपाध्याय, ( लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं। )
देश की संसदीय राजनीति में किसी भी पेशे या व्यवसाय से जुड़ा व्यक्ति चुनाव में जनता का समर्थन प्राप्त कर संसद पहुंच सकता है। उद्योगपति एवं कारोबारी भी चुनाव के रास्ते संसद में पहुंच कर देश की राजनीति पर असर डालते हैं। देश में कई ऐसे उद्योगपति हैं जो संसद सदस्य होने के साथ ही विभिन्न संसदीय समितियों में बतौर सदस्य शामिल हैं। ऐसे सदस्य संसद के दोनों सदनों-लोकसभा एवं राज्यसभा-में मौजूद हैं। जन प्रतिनिधि होने के साथ ही वे उद्योगपति भी हैं। इनमें कुछ उद्योगपति ऐसे भी हैं जिनकी कंपनियों के खिलाफ रकम के दुरुपयोग एवं परिचालन में अनियमितताओं के आरोप लग चुके हैं। अगर उद्योगपति चुनाव लड़ते हैं और लोगों के प्रतिनिधि के रूप में संसद पहुंचते हैं तो इसमें कुछ अनुचित नहीं है मगर क्या वे संसदीय समितियों के सदस्य बन सकते हैं? अगर वे इन समितियों के सदस्य बनाए जाते हैं तो क्या इससे हितों के टकराव की स्थिति पैदा नहीं होती है?
उद्योगपतियों के लिए पूंजी एक कच्चे माल की तरह होती है जिसके बिना उनका उद्योग नहीं चल सकता है। यह पूंजी उन्हें बैंकिंग तंत्र से हासिल होती है। मैं यह बिल्कुल कहने की कोशिश नहीं कर रहा हूं कि अपनी परियोजनाओं की राह में पूंजी की समस्या दूर करने के लिए उद्योगपति सांसद बैंकों या केंद्रीय बैंक पर किसी तरह का प्रभाव डालते हैं। मगर इस बात की पूरी आशंका है कि ये लोग ऋण आवंटन से जुड़े कर्जदाता संस्थानों के निर्णय प्रभावित कर सकते हैं या भुगतान में चूक कर चुकीं अपनी कंपनियों के खिलाफ ऋण वसूली की प्रक्रिया धीमी कर सकते हैं।
किसी भी क्षेत्र या खंड में किसी भी पक्ष या इकाई को अनुचित प्रभाव डालने या बेजा लाभ लेने से रोकने के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। अवसर की समानता सुनिश्चित करने और हितों का टकराव रोकने के लिए विशेष रूप से कुछ शर्तें तय की गई हैं। मगर दुर्भाग्य की बात है कि संसदीय समितियां एक ऐसा विषय है जहां एक के बाद एक सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया है। जो सांसद मंत्री नहीं बन सकते हैं उन्हें खुश करने के लिए अमूमन संसदीय समितियों में शामिल किया जाता है। इन समितियों के सदस्य मुंबई, दिल्ली और अन्य महानगरों के अलावा अक्सर हेल्थ रिजॉर्ट और सुंदर जगहों में मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि वे इन जगहों पर छुट्टियां मनाने या सैर-सपाटे के लिए जाते हैं। संसदीय समितियों के सदस्य वहां ज्वलंत मुद्दों पर बहस करते हैं। लोकसभा की वेबसाइट पर नजर डालें तो पता चलता है कि किस तरह ये समितियां अपने कार्यों के प्रति गंभीर होती हैं। इन समितियों के अध्ययनों पर लोकसभा में विवेचना और बहस होती है। चर्चा के बाद निकले नतीजे देश के लिए विभिन्न रूपों में उपयोगी साबित होते हैं। यह एक सामान्य परंपरा रही है। मगर इन समितियों में शामिल कुछ सदस्य अपने ओहदे का लाभ उठा ले जाते हैं। हाल में एक ऐसी ही बैठक में एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के प्रमुख को अपमानित किया गया। वजह इतनी सी थी कि उन्होंने एक उद्योगपति सदस्य के अनुकूल निर्देश मानने से इनकार कर दिया था। केवल भारत में ही संसदीय समितियां बैंकों से पूछताछ नहीं करती हैं। ब्रिटेन में भी संसदीय समितियां बैंकों से जवाब तलब करती रहती हैं। अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के प्रतिनिधि भी अमेरिकी संसद के ऊपरी सदन सीनेट की समितियों के समक्ष पेश होते रहते हैं। ब्रिटेन में ट्रेजरी कमिटी ताजा वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट पर अब बैंक ऑफ इंगलैंड के प्रतिनिधियों से सवाल पूछ रही है। इनमें बैंक ऑफ इंगलैंड के गवर्नर एंड्र्यू बेली भी शामिल हैं। बैंक ऑफ इंगलैंड की वित्तीय नीति समिति के सदस्यों से वित्तीय स्थायित्व पर महंगाई और ब्याज दर में बढ़ोतरी के असर, 2021 में ब्रिटेन के बड़े बैंकों की प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने की क्षमता और वित्तीय प्रणाली के लिए आभासी मुद्राओं (क्रिप्टोकरेंसी) के रूप में पैदा हो रहे जोखिमों पर सवाल पूछे जा रहे हैं।
इस महीने के शुरू में मैसाच्युसेट्स से डेमोक्रेटिक पार्टी की सीनेट इलिजाबेथ वारेन ने फेडरल रिजर्व से एक के एक बाद वित्तीय कदमों के बारे में और जानकारियां देने के लिए कहा था। ये कदम 2020 में कई शीर्ष अधिकारियों ने उठाए थे। उस समय अमेरिकी केंद्रीय बैंक बाजार को सक्रिय रूप से मदद दे रहा था।
लोकसभा में विभागों से संबंधित 24 स्थायी समितियां हैं। इनमें प्रत्येक समिति में 31 सदस्य हैं जिनमें 21 लोकसभा से और 10 राज्यसभा के हैं। इन सदस्यों को क्रमश: लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के चेयरमैन नियुक्त करते हैं। हमें ऐसी समितियों की जरूरत क्यो हैं? इन संसदीय समितियों की जरूरत इसलिए है कि संसद का काम काफी अधिक और पेचीदा ही नहीं बल्कि इनका दायरा बड़ा है और इन्हें निपटाने के लिए समय भी अधिक नहीं मिलता है। इस वजह से संसदीय कार्यवाही का एक बड़ा हिस्सा संसदीय समितियों में निपटाया जाता है।
संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं। इनमें स्थायी समितियां स्थायी एवं नियमित होती हैं। इन समितियों का गठन समय-समय पर संसद के प्रावधानों के तहत होता है। ये समितियां लगातार काम करती रहती हैं। वित्तीय समितियां, विभागों से संबंधित स्थायी समितियां और अन्य समितियां स्थायी समिति की श्रेणी में आती हैं। अस्थायी समितियों का गठन एक खास उद्देश्य के लिए होता है। अपना काम पूरा करने और संबंधित रिपोर्ट सौंपने के बाद ये समितियां भंग हो जाती हैं।
लोकतांत्रिक प्रणाली में संस्थान संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। यह प्रणाली बेहतर ढंग से कार्य करें इसके लिए सांसदों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी काफी हद तक सरकर की है। मगर क्या उद्योगपति सांसदों को ऐसी समितियों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए?
Date:29-01-22
निलंबन निराधार
संपादकीय
महाराष्ट्र विधानसभा से भाजपा के बारह विधायकों के निलंबन को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया है। इसे स्वाभाविक ही महाराष्ट्र महाअघाड़ी सरकार को झटके के रूप में देखा जा रहा है। मगर इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी अधिक गंभीर है और उसे नजीर की तरह याद रखा जाना चाहिए।दरअसल, मानसून सत्र के दौरान महाराष्ट्र विधानसभा में सभापति के साथ अभद्रता करने के आरोप में भाजपा के बारह विधायकों को एक साल के लिए निलंबित कर दिया गया था। इस फैसले का भाजपा ने पुरजोर विरोध किया। विपक्ष का कहना था कि निलंबन से पहले संबंधित विधायकों का पक्ष तक सुनने की जरूरत नहीं समझी गई। फिर उस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई, जिस पर यह फैसला आया है। सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस तरह निलंबन का फैसला तो निष्कासन से भी बुरा है। इसे किसी भी रूप में संवैधानिक नहीं कहा जा सकता। अधिक से अधिक उसी सत्र तक के लिए उन विधायकों का निलंबन किया जा सकता था। साल भर के लिए निलंबन का अर्थ है कि उतने दिन तक वे अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं हैं। यानी वे सभी क्षेत्र बिना प्रतिनिधि के हैं।
स्वाभाविक ही इस फैसले को राज्यसभा से निलंबित सांसदों को लेकर हुए विवाद से भी जोड़ कर देखा जाने लगा है। गौरतलब है कि मानसून सत्र में ही ठीक इसी तरह राज्यसभा के कुछ विपक्षी सांसदों को सदन में अमर्यादित आचरण के आरोप में निलंबित कर दिया गया था। तब सदन में हाथापाई हो गई थी और विपक्षी सांसदों को सुरक्षाबलों के जरिए बाहर निकालना पड़ा था। फिर जब शीत सत्र शुरू हुआ, तब भी उन्हें सदन की कार्यवाही से बाहर रहने को कहा गया। इस पर विपक्ष ने जम कर हंगामा किया और सदन के बाहर धरना-प्रदर्शन करते रहे। सत्तापक्ष का तर्क था कि सदन कभी समाप्त नहीं होती, इसलिए सांसदों का निलंबन तब तक बना रहेगा, जब तक कि वे लिखित रूप में माफी नहीं मांगते। इसे लेकर दोनों पक्ष कानूनी नुक्ते पेश करते रहे, मगर निलंबित सांसदों को कार्यवाही से बाहर ही रखा गया। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद सवाल उठता है कि क्या यही बात राज्यसभा के सांसदों पर लागू नहीं होती! जो हो, पर हकीकत यही है कि अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से महाराष्ट्र के विधायकों और राज्यसभा के सांसदों के सदन की कार्यवाही से बाहर रहने से जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। पर आने वाले वक्त में इसका ध्यान तो रखा ही जा सकता है।
सदन से प्रतिनिधियों के निलंबन का फैसला कई बार सत्तापक्ष सियासी हथकंडे के रूप में करते हैं। जब कभी सरकारों को लगता है कि किसी विषय पर जरूरी बहुमत हासिल करना मुश्किल होगा, तब वह किसी न किसी बहाने विपक्षी प्रतिनिधियों को सदन से बाहर करने का प्रयास करती हैं, ताकि उनके पक्ष के लोगों के मतदान से ही कानून पारित करा लिया जाए। यों भी सदन में विपक्ष की मौजूदगी जितनी कम रहती है, सत्तापक्ष के लिए उतनी ही आसानी होती है। विडंबना है कि इस कोशिश के चलते पिछले कुछ सालों से संसद और विधानसभाओं में बगैर चर्चा के कानून पास करा लेने की परंपरा गाढ़ी होती गई है। इस तरह बने कानून विवाद का विषय बनते हैं। यह प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं कही जा सकती।
आरक्षण के आंकड़े जरूरी
संपादकीय
देश की सर्वोच्च अदालत ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए तय मानदंडों में किसी तरह की रियायत देने से मना करते हुए साफ संदेश दे दिया है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ ने शुक्रवार को साफ कर दिया कि सरकारें पदोन्नति में आरक्षण देते हुए मनमानी नहीं कर सकतीं। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि एम नागराज (2006) और जरनैल सिंह (2018) मामलों में अदालत ने जो व्यवस्था दी थी, उसी पर वह अभी भी कायम है। पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए राज्य सरकारों को दरअसल तथ्य और आंकड़ों के साथ काम करना चाहिए, पर सरकारें ऐसा नहीं कर रही हैं। ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, राज्य मात्रात्मक डाटा जुटाने के लिए बाध्य हैं। मोटे तौर पर आरक्षण के आंकडे़ बताने से काम नहीं चलेगा, प्रत्येक पद या श्रेणी के हिसाब से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को देखना होगा। एक तरह से पीठ ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि केंद्र सरकार को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के पदों के प्रतिशत का पता लगाने के बाद आरक्षण नीति पर फिर से विचार करने के लिए एक समय-सीमा तय करनी चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए किसी भी सेवा या वर्ग में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की समीक्षा लंबे समय से वांछित रही है। हरेक श्रेणी के पदों में यह देखना जरूरी है कि किस जाति या जनजाति को न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। जिस जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, उसके बारे में सर्वोच्च अदालत का रुख भी स्पष्ट है। देश का मानस और विधान भी इसी पक्ष में है कि वंचितों को न केवल आरक्षण, बल्कि पदोन्नति में भी आरक्षण मिलना चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है। यह बहुत ही अच्छी बात है कि सर्वोच्च अदालत ने अपनी ओर से कोई सीमा तय नहीं की है और हर जगह के लिए एक जैसी सीमा या पैमाना तय करना अनुचित भी है। हरेक राज्य में पिछड़ेपन या पिछड़ों की स्थिति में फर्क है और इस फर्क को देखना सरकारों का काम है। इस फर्क के अनुरूप ही यह देखना है कि कोई भी जाति या जनजाति अवसर से वंचित न रहे। देश के लिए यह समझना भी जरूरी है कि किन-किन जातियों को किन नौकरियों या पदोन्नतियों में सर्वाधिक लाभ मिला है।
यह भी स्वागतयोग्य है कि सर्वोच्च अदालत ने समीक्षा या आंकडे़ जुटाने के लिए किसी समय-सीमा का निर्धारण नहीं किया है, लेकिन सरकारों को इस काम में पूरी मुस्तैदी से जुट जाना चाहिए। आरक्षण का न्यायपूर्ण होना और दिखना, दोनों जरूरी है। क्रीमी लेयर को देखना भी कहीं न कहीं जरूरी होता जा रहा है। अफसोस! सरकारें अभी क्रीमी लेयर को छेड़ना नहीं चाहतीं और आरक्षण के जरिये समाज में समता पैदा करने की बजाय आरक्षण की राजनीति पर ज्यादा जोर है। देश की आजादी के 75 साल बाद भी वंचित समुदायों को अगडे़ वर्गों के समान प्रतिभा के स्तर पर अगर नहीं लाया जा सका है, तो यह सरकारों के स्तर पर बड़ी कमी है। अब समय आ गया है कि आरक्षण और पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को सियासी नजरिये से नहीं, बल्कि जरूरत के नजरिये से देखते हुए सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जाए।
Date:29-01-22
सांस्कृतिक संपत्ति-सुरक्षा को मजबूत करने की जरूरत
शेखर चन्द्र जोशी, ( प्रोफेसर एवं चित्रकार )
इंडिया एजुकेशन डायरी डॉट कॉम से ज्ञात हुआ कि देश में हाल ही में सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी पर एक कार्यशाला का आयोजन हुआ। यह सुखद है कि सांस्कृतिक संपत्ति का संरक्षण तथा सांस्कृतिक संपत्ति का क्षरण जैसे मुद्दों पर भी कार्यशालाएंव संगोष्ठियां होती हैं। सांस्कृतिक संपत्ति को सांस्कृतिक विरासत भी कहा जाता है। यह समूह अथवा समाज की मूर्त-अमूर्त संपत्ति है। इसे आम तौर पर मूर्त वस्तुएं माना जाता है, जो किसी समूह की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा होती हैं।
किसी क्षेत्र से लूटी गई या अवैध रूप से हटाई गई सांस्कृतिक वस्तुओं की खरीद समाज को नुकसान पहुंचा सकती है। सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी के संबंध में सहयोग के लिए सबसे अधिक तैयार देशों में ऑस्ट्रेलिया ने हाल के वर्षों में कई वस्तुओं को वापस किया है और 2022 में 14 अन्य वस्तुओं को लौटाने का वचन दिया है। रिटर्निंग द लूट अर्थात लूट की वापसी शीर्षक से तथा सांस्कृतिक संपत्ति के स्वामित्व के अवैध आयात, निर्यात और हस्तांतरण को रोकने के साधनों पर 1970 का यूनेस्को कन्वेशन है। इसका मुख्यालय पेरिस में है। भारत इसके संस्थापक देशों में शामिल है। दुनिया के ज्यादातर देश यूनेस्को की बात मानते हैं। विगत दिनों आयोजित कार्यशाला में विशेषज्ञों की बैठक का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाना था। यह कार्यशाला मुख्यत: दक्षिण एशिया में सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी से निपटने के साधनों को बल देने के उद्देश्य से आयोजित की गई थी। दुनिया भर में सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी आज तीसरी सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय आपराधिक गतिविधि है। पहले स्थान पर ड्रग्स और दूसरे स्थान पर हथियारों की तस्करी है।
वर्ष 2020 में कला व प्राचीन वस्तुओं की वैश्विक बिक्री 50.1 अरब अमेरिकी डॉलर दर्ज की गई थी। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी हर साल करीब 10 अरब डॉलर तक होती है। इंटरपोल के आंकड़ों के अनुसार, साल 2020 में कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा विश्व स्तर पर 8,54,742 सांस्कृतिक वस्तुओं को जब्त किया गया था। यह सचमुच चिंता की बात है कि पिछले दशक में पूरी दुनिया में अवैध यातायात और सांस्कृतिक विरासत की लूट नाटकीय
रूप से बढ़ी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सितंबर 2021 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के बाद पुरावशेषों की वापसी को बल मिला है। देश में कुल 157 कलाकृतियां और पुरावशेष वापस आ रहे हैं। इनमें से कुछ सांस्कृतिक मूल्य रखते हैं, तो कुछ धर्मों से ताल्लुक रखते हैं। इनमें से लगभग आधी कलाकृतियां (71) सांस्कृतिक महत्व की हैं, अन्य आधी में हिंदू धर्म (60), बौद्ध धर्म (16) और जैन धर्म (9) से संबंधित मूर्तियां हैं।
सांस्कृतिक संपत्ति के लिए हरेक देश का अपना-अपना कानून है। हालांकि, यूनेस्को एक ऐसा संगठन है, जो सांस्कृतिक संपत्ति के लिए विश्व स्तर पर स्वीकृत परिभाषा का उपयोग करता है। सांस्कृतिक संपत्ति का मतलब है, जो संपत्ति धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष आधार पर, विशेष रूप से प्रत्येक राज्य द्वारा पुरातत्व, प्रागैतिहास, इतिहास, साहित्य, कला या विज्ञान के लिए महत्व की मानी गई हो।
सांस्कृतिक-ऐतिहासिक या बौद्धिक मूल्य के अलावा सांस्कृतिक संपत्ति का आमतौर पर एक वित्तीय मूल्य होता है। ज्यादातर वित्तीय मूल्य की वजह से विरासती वस्तुओं पर खतरा होता है। घरों, मंदिरों, संग्रहालयों से उनकी चोरी या लूट को बल मिलता है। सांस्कृतिक वस्तुओं की अवैध खरीद-बिक्री ज्ञान-विज्ञान को नुकसान पहुंचा सकती है। इससे किसी समाज की सांस्कृतिक पहचान का एक हिस्सा खो सकता है। वैज्ञानिक और ऐतिहासिक डाटा खो सकता है। इससे आने वाली पीढ़ियों को अपना इतिहास समझने में परेशानी आ सकती है। यही कारण है कि सांस्कृतिक संपत्ति का आयात और निर्यात नियमों के अधीन है।
सांस्कृतिक संपत्ति की अवैध तस्करी थम जाए, इसके लिए चाहिए कि हम अपनी सांस्कृतिक संपत्ति की सुरक्षा, संरक्षण के प्रयासों के साथ इसके क्षरण के कारणों को भी जानें, तभी हम किसी समूह या अपनी सांस्कृतिक संपत्ति पर गर्व कर सकेंगे।