05-02-2018 (Important News Clippings)

Afeias
05 Feb 2018
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Date:05-02-18

Must get out of a structural deficit

ET Editorials

The slippage in the Centre’s fiscal deficit to 3.5% of GDP in 2017-18, it transpires, is largely due to the sharp fall in non-tax revenues and resultant rise in the revenue deficit.National Institute of Public Finance and Policy director Ratin Roy underscores the need for structural reforms to raise non-tax revenues and sees lowering the revenue deficit as an immediate priority. This makes sense, with the qualification that the deficit has to be brought down not so much by lowering expenditure as by raising non-tax revenues.

Maintenance of capital assets and building human capital via education and healthcare fall under revenue expenditure and cutting these would be counterproductive, and may even impact return on capital assets in the economy. The Medium-Term Fiscal Policy (MTFP) Statement is right to say so.

However, both the Centre and states must raise non-tax revenues. Regrettably, non-tax revenues are projected to fall even further next fiscal, due to a steep Rs 10,792 crore drop in dividends from public sector enterprises, state-owned banks and the RBI. The policy on dividends must be reviewed. PSUs that fail to meet their planned investment targets should surrender their funds instead of keeping them in bank deposits.

These companies should pay special dividends to transfer surplus reserves. It will benefit all shareholders, and help boost revenues. Rightly, the MTFP calls for a mandatory review of user charges and fees. States should also raise non tax revenues, setting realistic tariffs and user charges for water and power.

The Centre must reconfigure its assets through stake sales and privatisation. The government should swiftly complete the privatisation of Air India, and use the proceeds to spend on capital formation. Similarly, privatisation of perennially loss-making units and enterprises that have ceased to be strategic will free up resources that can be put to more productive use.It makes sense to hive off land assets of these public sector undertakings as separate entities before privatisation so that no unearned rents accrue to the new owner.


Date:05-02-18

Focus on educating children below six

ET Editorials

The government’s focus on improving outcomes in education —learning at school and research in universities — is welcome. Budget 2018 attempts to put in place the necessary conditionsto make good on this focus. The real test of the government’s intent is the work programme and implementation strategy.

Integrating early childhood education with schools will positively impact learning outcomes, as borne out by the work of academics such as Raj Chetty. But the task of effecting this integration is tricky. Pre-nursery or early childhood education is handled by the ministry of women and child development (WCD), school education by the ministry of human resource development (HRD).

The two ministries must prepare a timebound plan for a sustainable, viable shift in educating children below 6. Significant brain development takes place, via both nutrition and brain stimulation, up to age 3 as well. This, too, must be taken on by a major reorientation of the WCD ministry, reworking the role of Anganwadi workers. The HRD ministry has to develop age-appropriate curriculum, hire teachers and provide proper training. Besides the efforts at the Centre, this integration will require administrative realignment at the state and district levels. These are major challenges.The idea of district-wise strategy to improve learning outcomes sounds good on paper. The focus must be on balancing decentralisation with a need for a common core that will allow for mobility of students through the system. The National Assessment Survey must provide a more granular picture of the education outcomes map rather than just cover more ground.

The focus on teacher training is welcome, as is the effort to embrace the digital revolution. Creating a monolith out of prenursery to Class 12 might not be the way to go, however.


Date:05-02-18

भारतीय मध्य वर्ग पर बजट प्रहार

शेखर गुप्ता

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने अपने हालिया बजट में देश के मध्य वर्ग की बचत को ही निशाने पर लिया है। राजनीतिक जरूरतों के लिए धन खर्च करने के चलते जब भी हमारी सरकार नकदी की तंगी में रहती है तो वह असहाय मध्य वर्ग का गिरेबान पकड़ती है। खासतौर पर उनका जो वेतनभोगी हैं। उनका गला सरकार अपनी मर्जी से दबा सकती है। उनके पास जुबान नहीं है, न ही वे निर्धारित वोटबैंक हैं और न उनकी साझा पहचान है। बस उनका गला पकडि़ए, पीछे लात लगाइए और वे उगल देंगे। इसकी आपको कोई राजनीतिक कीमत भी नहीं चुकानी होगी।बल्कि वे जितनी शिकायत करेंगे उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इससे गरीबों को एक तरह की संतुष्टि मिलेगी। फिलहाल हम इसे राजनीति का नोटबंदी मॉडल कह सकते हैं। कुछ ऐसा नाटकीय कीजिए कि गरीबों पर असर पड़ भी रहा हो तो आप उनसे जाकर कह सकें कि कृपया बरदाश्त कर लीजिए आपको अंदाजा भी नहीं है कि अमीरों को कितना कष्ट हो रहा है। यह अलग बात है कि अमीरों को कभी कष्ट नहीं होता। गरीबों को होता है लेकिन वे तो हमेशा ही दिक्कत में रहते हैं। मध्य वर्ग को आप कभी भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। राजस्व के लिए, राजनीति के लिए या सिर्फ अपनी खुशी के लिए।

हालिया बजट में ऐसा कुछ नहीं था जो इसे सुर्खियों में लाए। इसे अगले दिन सुबह तक हमारी स्मृतियों तक से गायब हो जाना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शेयर बाजार और बॉन्ड बाजार में मचे हाहाकार ने इसे हमारी याद में बनाए रखा है। इस बजट के बाद बाजार में मची मारकाट को देखते हुए इसे प्रणव मुखर्जी द्वारा अतीत की तिथि से लागू होने वाले वोडाफोन संशोधन की श्रेणी में रखा जा सकता है। यह इतना बुरा था कि उनके बाद के दो वित्त मंत्रियों ने अपने छह बजटों में इसे हाथ लगाने का साहस नहीं दिखाया है। मुखर्जी के बाद पी चिदंबरम के तीन बजटों में भी ऐसी बातें थीं जिन्होंने बाजार को प्रभावित किया। इनमें बैंकिंग नकदी लेनदेन कर, प्रतिभूति लेनदेन कर और एंप्लॉयी स्टॉक ऑप्शंस टैक्स का पुनर्लेखन शामिल था। इस बजट में मध्य वर्ग की बचत के उस जरिये पर हमला किया गया जो पिछले एक दशक से उसके लिए राहत बना हुआ था। यह है म्युचुअल फंड पर कर लगाने का फैसला। इस कदम की तुलना अतीत में बाजार पर असर डालने वाली किसी भी घटना से हो सकती है। इसके बाद मध्य वर्ग के पास कोई रास्ता नहीं बचा।

मैं यह लिख रहा हूं क्योंकि बिज़नेस स्टैंडर्ड लिमिटिड के चेयरमैन टी एन नाइनन जो कि देश में अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करने वाले सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं, उन्होंने भी कुछ सप्ताह पहले अपने साप्ताहिक स्तंभ में शेयरों पर फिर से दीर्घावधि का पूंजीगत लाभ कर लगाने की मांग की थी। उन्होंने दलील दी थी कि अगर वित्त मंत्री घाटे को कम करना चाहते हैं तो उनको शेयर से होने वाले मुनाफे पर कर लगाना होगा। जाहिर है वित्त मंत्री को उनकी सलाह उचित लगी और घाटा कम करने का इसका आर्थिक पहलू भी मजबूत है लेकिन मैं इस पर एक अलग दृष्टिकोण से बात कर रहा हूं।

पहला सवाल तो यह है कि क्या कोई सरकार अपनी चुनावी राजनीति की फंडिंग के लिए जो चाहे वो कर सकती है? भले ही इसके राजकोषीय प्रभाव कुछ भी हों? मैं सब्सिडी या गरीबोन्मुखी योजनाओं की शिकायत नहीं कर रहा हूं। लेकिन नोटबंदी जैसे विचित्र विचार का क्या जिसने पूरे वर्ष के जीडीपी के 1-2 फीसदी के बराबर राशि का नुकसान किया? इसके अलावा इससे कई छोटे रोजगार और बड़ी तादाद में रोजगार का नुकसान हुआ वो अलग। इसके पीछे की आर्थिक सोच यह थी कि इससे असंगठित क्षेत्र की लाखों करोड़ों की नकदी संगठित क्षेत्र में आएगी और देश का करदाता आधार विस्तारित होगा और कर संग्रह भी बढ़ेगा। नोटबंदी के डेढ़ साल बाद इनमें से कोई लाभ नजर नहीं आ रहा।

अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने आर्थिक समीक्षा में नोटबंदी की विफलता की स्वीकारोक्ति खोज निकाली। उन्होंने ट्वीट किया, ‘यह देखना अच्छा है कि वर्ष 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में नोटबंदी की बड़ी चूक को स्वीकार किया गया है। कहा गया है कि अर्थव्यवस्था में मौजूदा मंदी पूर्व में उठाए गए नीतिगत कदमों की बदौलत है।वहीं दूसरी ओर सरकार ने इक्विटी लिंक्ड म्युचुअल फंड पर कर लगा दिया। यानी यह दावा काल्पनिक साबित हुआ कि करदाताओं से लाखों रुपये जुटाए जाने हैं। दूसरी दलील राजनीतिक है। सरकारें मध्य वर्ग के साथ ऐसा व्यवहार इसलिए कर पाती हैं क्योंकि इसकी कोई लॉबी या कोई चुनावी क्षमता नहीं है। ऐसा बजट उनकी राजनीति के लिए सकारात्मक हो सकता है। बस गरीबों को यह समझाना होता है कि लाखों-करोड़ों रुपये उनकी ओर आ रहे हैं। किसानों को यह कहना होता है कि चूंकि उनके पास वोट हैं इसलिए उनका संकट दूर करने का सरकार हरसंभव प्रयास करेगी। मध्य वर्ग जो आपको मतदान करता है उसे आप योग, गो संरक्षण और मुस्लिम समस्या में उलझाकर रखिए। तीन तलाक से हज सब्सिडी और लव जिहाद तक अनेक मुद्दे हैं उसके लिए।

कुछ आंकड़े हमारी आम बहस में सन्निहित हैं। इनमें से एक यह है कि केवल 1.7 फीसदी भारतीय आय कर चुकाते हैं। यह आंकड़ा वर्ष 2015-16 के आयकर विभाग के आधिकारिक आंकड़ों से निकला है। 130 करोड़ की आबादी और बहुत बड़ी तादाद वाले मध्य वर्ग के बीच यह थोड़ा विचित्र लगता है। मध्य वर्ग का आकार इस 1.7 फीसदी से बहुत बड़ा है, भले ही आप नीति आयोग अथवा इकनॉमिस्ट पत्रिका के अनुमानों पर भरोसा करें या नहीं। आप इस सवाल को दूसरी तरह से उठा सकते हैं। लेकिन क्या यह बहुत विचित्र नहीं कि केवल 1.7 फीसदी भारतीय ही 100 फीसदी आयकर दे रहे हैं। बेहतर सरकार सरकार वही होगी जो इस दायरे को बढ़ाने का प्रयास करेगी। नोटबंदी पहला उपाय था जिसके बाद वस्तु एवं सेवा कर लागू किया गया। परंतु हकीकत यही है कि सभी सरकारें इस लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रही हैं। यही वजह है कि बड़े कर वंचकों को पकडऩे में कामयाबी नहीं मिल सकी। इसके बदले सरकार उन पर वार करती रहती है जिनके पास छिपने की जगह नहीं है।

अब वेतनभोगी कर्मचारी अपनी बचत को कहां ले जाएंगे? क्योंकि उनके पास नकदी नहीं है, परिसंपत्ति बाजार में प्रवेश करना आसान नहीं है और राजग सरकार के चार साल के कार्यकाल में अचल संपत्ति के मूल्य में भारी गिरावट आई है। बैंकों और सरकारी बचत योजनाओं में बहुत नाम मात्र का ब्याज मिल रहा है। जबकि इन्हीं बैंकों ने ऋण दरों में कमी नहीं की है और लोगों की मासिक किस्तों में कमी नहीं आई है। सरकार की तरह ही बैंकों को भी यह पता है कि वे बड़े देनदारों द्वारा किए गए डिफॉल्ट की भरपाई मध्यवर्ग के जमाकर्ताओं से ही कर सकते हैं। इसमें घर, वाहन और शिक्षा आदि के लिए ऋण लेने वाले लोग शामिल हैं। सवाल यह है कि अब लोग अपनी बचत को कहां ले जाएं? क्या वे सोने में निवेश करें?

जब वर्ष 2004 में पी चिदंबरम द्वारा बजट प्रस्तुत किए जाने के बाद बाजार में तत्काल गिरावट आई तो उन्होंने वही कहा था जो अधिकांश मामलों में वित्त मंत्री कहा करते हैं। उन्होंने कहा कि क्या मैं किसानों या ब्रोकर के लिए बजट बनाता हूं? मैंने उस वक्त भी लिखा था कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में मामला अब किसान बनाम ब्रोकर का नहीं रहेगा। क्योंकि कृषि और वित्तीय बाजार अब एक दूसरे से अलग नहीं रह गए थे। बजट में कई सुधार किए गए और इस तरह नुकसान कम करने का प्रयास किया गया। इस बार भी ऐसा ही होना चाहिए। देश का अधिकांश मध्य वर्ग शहरी है और मोदी को लेकर प्रतिबद्घ भी। गुजरात चुनाव में हमने ऐसा देखा। यह प्रतिबद्घता ऐसी है कि लोग इस बात को भी पचा गए कि इस सरकार ने चार साल में उसे तेल कीमतों में कमी का कोई लाभ नहीं दिया। अब उनकी बचत पर हमला किया गया जो गहरे जख्म देगा।


Date:05-02-18

राह नहीं आसान

संपादकीय

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गत सप्ताह वर्ष 2018-19 का जो बजट प्रस्तुत किया उसकी सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली योजना वह थी जिसमें करीब 50 करोड़ गरीबों या कहें 10 करोड़ गरीब परिवारों के लिए एक नई सरकार समर्थित चिकित्सा बीमा योजना लाने की बात कही गई। सरकार इन गरीबों को 5 लाख रुपये तक का बीमा मुहैया कराएगी और वे किसी बड़ी चिकित्सा समस्या के दौरान किसी भी अस्पताल में जाकर इलाज करा सकेंगे। वित्त मंत्री ने इसे सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा की दिशा में पहला कदम बताया है जो सन 2014 में सत्ताधारी दल के चुनावी घोषणा पत्र का अहम हिस्सा था। इस योजना के पीछे जो नीयत है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। देश की बीमा नियामक संस्था आईआरडीए के मुताबिक देश में करीब दो-तिहाई चिकित्सा व्यय मरीजों या उनके परिजन द्वारा सीधे चुकाया जाता है।

यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है और गरीबी रेखा से ऊपर आने वाले अधिकांश परिवारों के दोबारा गरीबी के भंवर में जाने के लिए चिकित्सा व्यय ही उत्तरदायी होता है। स्वास्थ्य पर निजी खर्च को कम किए जाने की आवश्यकता है, खासतौर पर जेब से लगने वाले पैसे को। इसके अलावा सार्वजनिक व्यय में इजाफा करना भी आवश्यक है।परंतु यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि सरकारी लागत से निजी चिकित्सा का प्रावधान इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे बेहतर तरीका है भी या नहीं। ऐसी व्यवस्था में खास प्रक्रियाओं की लागत का नियंत्रण करना और यह सुनिश्चित करना कि मरीजों को जरूरत से ज्यादा उपचार न दिया जाए या उसे अनावश्यक रूप से ऑपरेशन की सलाह न दी जाए, यह सुनिश्चित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि ऐसी किसी नियामकीय व्यवस्था की योजना बनाई जा रही है या नहीं जो ऐसी आशंकाओं से निपटने का काम कर सके। या फिर देश में नियामकीय क्षमताओं की कमजोरी को देखते हुए कहें तो यह संभव भी है या नहीं? मौजूदा चिकित्सा नियमन संस्थान मसलन भारतीय चिकित्सा परिषद आदि का रिकॉर्ड खुलेपन, क्षमता या ईमानदारी को लेकर कोई बहुत बेहतरीन नहीं रहा है।

यह बात भी ध्यान देने लायक है कि इस योजना की लागत कितनी होगी यह अभी तक साफ नहीं है। हाल में प्रस्तुत आम बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में भी कोई उल्लेखनीय इजाफा नहीं किया गया है जिसके बारे में कहा जा सके कि वह इस योजना के लिए किया गया है। स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में 150 करोड़ रुपये से भी कम की बढ़ोतरी की गई है। यह राशि पर्याप्त नजर नहीं आती। इस योजना की वास्तविक लागत का अनुमान अलग-अलग है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इसकी लागत 50,000 करोड़ रुपये तक हो सकती है। सरकार का जोर इस बात पर है कि 100 अरब रुपये की राशि पर्याप्त है और इसका बोझ राज्य सरकारें वहन करेंगी। सरकार की इस योजना के ढांचे और इसके लिए फंड के बारे में और ब्योरे आवश्यक हैं।

ऐसे समय में जबकि वित्तीय स्थिति तंग है, तो यह बात समझी जा सकती है कि सरकार अपना वादा निभाना भी चाहती है और शुरुआती आवंटन कम से कम रखना चाहती है। परंतु एक बढिय़ा सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम कभी सस्ता नहीं हो सकता। न ही निजी प्रावधान आधारित योजना मध्यम से लंबी अवधि में बेहतर साबित हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि देश की 40 फीसदी आबादी को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने संबंधी इस योजना को लेकर होने वाली खुली चर्चा का डिजाइन और क्रियान्वयन करते वक्त सरकार यह स्वीकार करेगी कि बढिय़ा सरकारी अस्पतालों, चिकित्सकों और चिकित्सा नियमन पर धन खर्च करने का कोई विकल्प ही नहीं है।


Date:05-02-18

रोजगार लायक कौशल नहीं दिला पा रही शिक्षा व्यवस्था

श्यामल मजूमदार

वैश्विक प्रतिभा प्रतिस्पर्धा सूचकांक में भारत की स्थिति सुधरी है और वह गत वर्ष के 92वें स्थान से 81वें स्थान पर आ गया है। यह सूचकांक एडेको, इनसीड और टाटा कम्युनिकेशंस द्वारा विश्व आर्थिक मंच की दावोस में आयोजित सालाना बैठक के पहले दिन जारी किया गया। इस सूचकांक में इस बात का आकलन किया जाता है कि विभिन्न देश अपनी प्रतिभाओं का विकास कैसे करते हैं, उन्हें अपनी ओर आकर्षित कैसे करते हैं और किस तरह उनको अपने साथ जोड़े रखते हैं। बहरहाल अच्छी खबर यहीं तक सीमित है क्योंकि सन 2017 में भारत की रैंकिंग पांच ब्रिक्स देशों में सबसे कमजोर थी। चीन 43वें, रूस 53वें, दक्षिण अफ्रीका 63वें और ब्राजील 73वें स्थान पर रहा।

विविधता इस सूचकांक के प्रमुख घटकों में से एक है। इसकी आवश्यकता उन जटिल कामों के लिए होती है जिनमें रचनात्मकता जरूरी होती है। रिपोर्ट के सह संपादक पॉल इवांस के मुताबिक पिछले कुछ दशकों में विविधता का सवाल काफी अहम होकर उभरा है क्योंकि अब तमाम देशों को भी यह समझ में आ गया है कि एकरूपता और समन्वय में काफी अंतर है। इनके बीच के अंतर को सक्षमता, प्रतिस्पर्धा और नवाचार के मानकों पर आंका जा सकता है। औपचारिक शिक्षा पर सहयोगपूर्ण सक्षमता तैयार करने की अहम जिम्मेदारी है। एक समावेशी विश्व के लिए यह आवश्यक है।जिन देशों को बतौर संसाधन विविधता का मूल्य पता है और जो उसे प्रभावी ढंग से अपनाते हैं वे इस वर्ष के सूचकांक में शीर्ष पर हैं। उदाहरण के लिए स्विट्जरलैंड एक बार फिर इस सूचकांक में शीर्ष पर है। वह अपनी प्रतिभाओं को संभालता है और नई प्रतिभाओं का स्वागत भी करता है। स्विट्जरलैंड की एक चौथाई आबादी विदेशों में पैदा हुई है, हालांकि वहां स्त्री-पुरुष अनुपात का मसला बरकरार है। मध्य आय वर्ग वाले देशों में मलेशिया का प्रदर्शन अच्छा है और वह 27वें स्थान पर है। वहां श्रमिकों को भर्ती करने के मानक आसान हुए हैं और माध्यमिक शिक्षा में रोजगार को लेकर वह प्रभावी कौशल तैयार कर सका है।

सूचकांक प्रतिभा पलायन के विषय पर भी बात करता है यानी कैसे देश अपनी सर्वश्रेष्ठï प्रतिभाओं को अपने साथ बरकरार रखता है। इस मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन काफी कमजोर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारा देश प्रतिभा पलायन के मोर्चे पर काफी सुधार कर सकता है। इसके लिए उसे बाहर जा चुकी प्रतिभाओं को दोबारा आकर्षित करना होगा। इस मोर्चे पर सूचकांक में हमें 98वां स्थान और प्रतिभाओं को बरकरार रखने के मामले में 99वां स्थान मिला है। खासतौर पर उच्च कौशल वाले लोगों बाहर जाने की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए प्रतिभाओं को आकर्षित करना अहम है।

इसकी वजह एकदम स्पष्टï है। मेहनताने की बात की जाए तो शैक्षणिक जगत में अमेरिका में एक भारतीय को मिलने वाला वेतन अपने भारतीय समकक्ष की तुलना में छह गुना तक होता है। प्रबंधन में यह अंतर तीन गुना और आईटी में दो गुना तक है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि भारत विदेशों से प्रतिभाओं को आकर्षित कर पाने में नाकाम है। इस मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन निहायत खराब है। सबसे अहम बात यह है कि शीर्ष रैंकिंग वाले तमाम देशों में एक बात समान थी। उन सभी की शिक्षा व्यवस्था अच्छी तरह विकसित है और उनमें मौजूदा श्रम बाजार की जरूरतों के मुताबिक कौशल प्रदान किया जाता है।

इस मोर्चे पर भारत बहुत हद तक नाकाम है। असर 2017 रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में 14 से 18 की उम्र के बच्चे बड़ी तादाद में हर साल स्कूल छोड़ देते हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक करीब 17 लाख बच्चे हर वर्ष स्कूल से बाहर हो जाते हैं। बड़ी समस्या यह है कि जो बच्चे स्कूल में बने भी रहते हैं वे भी एकदम बुनियादी बातें नहीं सीख पाते। ये बच्चे बमुश्किल साक्षर होते हैं और ऐसे में वे किसी कौशल विकास पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हो सकते। नतीजा, वे या तो कोई छोटा-मोटा काम करते हैं या बेरोजगार रहते हैं। उन्हें या तो खेतों में काम करना पड़ता है या फिर वे छोटी-मोटी मजदूरी करते हैं।

सरकार ने खुद यह संकेत दिया है प्रधानमंत्री कौशल विकास कार्यक्रम के अधीन अप्रैल 2016 तक करीब 17.6 लाख लोगों को प्रशिक्षण दिया गया उनमें से केवल 5.60 लाख लोगों ने इसे सफलतापूर्वक पूरा किया। इनमें से भी केवल 82,000 लोगों को रोजगार मिला। परंतु जिन लोगों को रोजगार मिला उनका कौशल भी बहुत जल्दी पुराना पड़ गया क्योंकि देश में ऐसा कोई तंत्र नहीं है जिसके तहत इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, कृषि मशीन संचालकों और अन्य कौशल वाले श्रमिक अपने कौशल को निरंतर उन्नत बना सकें। विकसित देशों में इसके लिए संस्थागत लाइसेंसिंग की व्यवस्था है।स्त्री-पुरुष असमानता भी एक मुद्दा है। एक बार आठ वर्ष की अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा समाप्त होने के बाद लड़कियां, लड़कों की तुलना में अच्छे नंबर पाने के बावजूद स्कूल जाना बंद कर देती हैं। 18 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते शिक्षा छोडऩे वाली लड़कियों की तादाद इसी उम्र के लड़कों की तुलना में 4.3 फीसदी अधिक होती है। जब तक ये मुद्दे देश की प्राथमिकता सूची में नहीं आते तब तक प्रतिभा प्रतिस्पर्धा के वैश्विक सूचकांक में अपनी स्थिति सुधरने के बारे में हम सोच भी नहीं सकते।


 

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