28-12-2024 (Important News Clippings)
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Date: 28-12-24
खतरे में संसद की विश्वसनीयता
आरके सिन्हा, ( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं )
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंद न हों। प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र का यह शेर आजकल बार-बार कहने का मन करता है। वजह है, राजनीतिक कटुता का माहौल। संसद के भीतर बाहर जिस तरह गलत भाषा का खुला प्रयोग होने लगा है, वह दुखद है। असहमति में तो लोकतंत्र के प्राण बसते हैं, पर वह मर्यादापूर्वक होनी चाहिए। अगर मर्यादापूर्ण असहमति पर ध्यान दिया जाए, तो कम से कम संसद में घटिया शब्दावली का प्रयोग जरूर थम जाएगा। संसद को बाद- विवाद और संवाद से सहमति बनानी होगी, न कि असहमति का माहौल बनाने में अपने समय को नष्ट करना होगा। आज देश की आबादी में 65 प्रतिशत हिस्सेदारी 35 वर्ष से कम युवाओं की है। हमें इस आबादी की संरचना को ध्यान में रखते हुए युवाओं के चौतरफा विकास की गति को तेज कर उस पर खरा उतरना होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर पाए तो संसद और सांसदों की प्रतिष्ठा तार-तार हो जाएगी।
विधायिका और इससे जुड़ी संस्थाओं की सार्थकता पर अब हर तरफ से सवाल उठने लगे हैं। कारण यह है कि अब संसद में बहस के बजाय हंगामा ही हो रहा होता है। हंगामे से सदन को बार- बार बिना वजह स्थगित करना पड़ता है। जब सदन चलेगा ही नहीं तो वहाँ पर कामकाज कैसे होगा? सच बात यह है कि संसद में हंगामा करने वाले सदस्यों को अपने दल के नेताओं से हरी झंडी मिली होती है। उनसे कहा जाता है कि वे सदन में नारेबाजी करते रहें और कामकाज न होने दें। अगर आप कोर्ट की कार्यप्रणाली से वाकिफ होंगे तो आपको पता होग कि वहां बकील सुबह से शाम तक एक-दूसरे के खिलाफ केस लड़ते हैं। उनके बीच तीखी बहस भी होती है, पर लंच और फिर नाश्ते के समय सब बैठकर गपशप कर रहे होते हैं। उनमें कहीं कोई कटुता नहीं होती। ऐसे वकीलों से भी संसद सदस्य कुछ सीख ले सकते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक मोटिवेशनल स्पीकर और हिंदू धर्म ग्रंथों के विद्वान एक सेमिनार में कह रहे थे किं जीवन में किसी को शत्रु मानना या उससे शत्रुता रखना कतई सही नहीं हैं। आप अपने को उसी दिन से बेहतर इंसान मान सकते हैं, जिस दिन आपके मन में किसी के लिए कोई कटुता न रहे, पर संसद में सत्तापक्ष विपक्ष के बीच दुश्मनी बाला भाव दिखता है। अब यह भाव संसद के बाहर भी दिखने लगा है।
कभी-कभी बहुत क्लेश होता है कि अब संसद में यादगार भाषण सुनने को नहीं मिलते। एक दैर था जब संसद में सार्थक चर्चा होती थी और सदस्य सारगर्भित भाषण दिया करते थे। हमारे यहां कई प्रखर सांसद हुए हैं, जिन्होंने अपनी वाक्पटुता, तार्किक क्षमता और संसदीय ज्ञान से महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी के संसद में दिए भाषणों को कौन भूल सकता है। वह अपनी कविताओं और भाषणों के लिए जाने जाते हैं। डा. राम मनोहर लोहिया भी आलोचनात्मक शैली और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर मुखरता के साथ अपनी बात रखते थे। मधु लिमये तो बार-बार याद आते हैं। वह प्रश्नकाल में तीखे सवाल पूछते थे। ओजस्वी वक्ता तो वह थे ही। इस क्रम में जार्ज फर्नांडिस भी थे। वह सामाजिक न्याय और गरीबों के अधिकारों के लिए मुखर थे। इसके अलावा कई अन्य सांसद भी ऐसे रहे हैं, जिन्होंने अपनी प्रखरता से भारतीय संसद को समुद्ध किया है।
एक बार मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर वेंकट सुंदरम बता रहे थे कि उनके शिक्षाविद पिता पीएम सुंदरम उन्हें बचपन में कहते थे कि वह अखबारों में संसद की कार्यवाही को ध्यान से पढ़ लिया करें। उन्हें पढ़कर देश-दुनिया की स्थिति को समझने मदद मिलेगी। क्या आज कोई अभिभावक अपने बच्चों को कहता होगा कि वे संसद की कार्यवाही से जुड़ी खबरों को पढ़ें या कार्यवाही को टीवी पर देखें? वजह बहुत साफ है कि संसद में बहस का स्तर ही नहीं गिरा है, बल्कि वहां तो संग्राम वाली स्थिति बनी रहती है। सिर्फ पंगेबाजी और एक-दूसरे पर उलटे सीधे आरोप लगाने से तो संसद नहीं चल सकती। पिछले हफ्ते संसद परिसर में तब शर्मनाक घटना घटी, जब दो साँसद धक्का-मुक्की में घायल हो गए। किसने किसको धक्का दिया इसकी जांच चल रही है, पर धक्का तो दिया गया, तभी तो एक सांसद का सिर फटा ?
संसद में तमाम असहमति के बाद भी देश हित के मामलों पर बाद, विवाद और संबाद होना अनिवार्य है। अगर संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर बहस ही नहीं होगी तो फिर क्या होग। आज देश की आम जनता में यह भावना तेजी से घर करती जा रही है कि संसद में कायदे से संविधान के अनुरूप कुछ होता ही नहीं। वहां पर तो सदस्य मात्र शोर-शराबा करने के लिए जाते हैं। यह समझा जाना चाहिए कि संसद की महत्ता और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। अब हंगामा करने वालों को देश सीधे टीवी पर देखता है। संसद की कार्यवाही का टीवी प्रसारण इस उम्मीद में शुरू किया गया था कि इससे संसद की कार्यवाही का स्तर ऊंचा उठेग, लेकिन अब तो इसका उलटा हो रहा है।
Date: 28-12-24
घरेलू प्रवासन में कमी
संपादकीय
एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 40 करोड़ भारतीय देश में ही प्रवासन करते हैं और एक अध्ययन बताता है कि यह 2011 की पिछली जनगणना में देश में प्रवासन के आंकड़ों से 11.78 फीसदी कम है। इसके परिणामस्वरूप प्रवासन दर जो 2011 में आबादी की 37.64 फीसदी थी, 2023 में कम होकर 28.88 फीसदी रह गई है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी अध्ययन देश में प्रवासन और शहरीकरण के रुझानों को समझने में बहुत मददगार साबित हो सकता है। आधिकारिक आंकड़ों पर निर्भर रहने के बजाय अध्ययन उच्च तीव्रता वाले आंकड़ों का इस्तेमाल करता है।
मसलन ट्रेनों में अनारक्षित यात्रियों की संख्या, मोबाइल फोन के रोमिंग आंकड़े और जिलावार बैंकिंग आंकड़े। वह इनकी मदद से यह समझने का प्रयास करता है कि प्रवासन किस प्रकार हो रहा है। देश में प्रवासन की बात करें तो यह मुख्य रूप से ग्रामीण गरीबों या देश के कम विकसित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए एक किस्म की पलायन रणनीति होती है ताकि वे अपनी स्थिति बेहतर बना सकें। हालांकि अक्सर यह उनकी आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाती। ऐसे में घरेलू प्रवासन आमतौर पर असमान विकास रणनीतियों और क्षेत्रीय असमानता का नतीजा होता है।
जैसा कि अध्ययन दर्शाता है, प्रवासन में कमी को इस तरह भी देखा जा सकता है कि शायद इन प्रवासियों के मूल निवास वाली जगहों पर आर्थिक हालात और अवसरों में सुधार हुआ हो। यह भी माना जा सकता है कि वे जगहें देश के सामाजिक-आर्थिक विकास से लाभान्वित हुई हों। इसके साथ ही यह बड़ी शहरी बसाहटों में कमजोर होते आर्थिक अवसरों का भी परिणाम हो सकता है जिसके चलते संभावित मजदूर अपने घरों को रुक कर वहीं आजीविका के अवसर तलाश करते हों या फिर वे अपने घर के आसपास के राज्यों में काम करने जाते हों।
राज्यवार अंतर एक दिलचस्प तस्वीर पेश करता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल मिलकर करीब आधे यानी 48 फीसदी प्रवासी श्रमिक भेजते हैं। इसी के साथ महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु मिलकर 48 फीसदी प्रवासी श्रमिकों का ठिकाना बनते हैं। परंतु इन राज्यों में भी संबंधित राज्यों को जाने वाले प्रवासियों का प्रतिशत कम हो गया है। महामारी के दौरान उलट प्रवासन के स्पष्ट प्रमाण देखने को मिले लेकिन प्रतिबंध समाप्त होने के बाद लोग वापस शहरों और औद्योगिक ठिकानों की ओर वापस लौटे। हालांकि यह वापसी अभी भी महामारी के पहले वाले स्तर तक नहीं पहुंच सकी है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी एक पर्चा इस मुद्दे को आगे और स्पष्ट करता है। यह पर्चा भारतीय रेल के उपनगरीय परिवहन के रुझानों का अध्ययन करता है। पिछले दशक में चार महानगरों की उपनगरीय यात्रा कम हुई या बहुत कम बढ़ी। इसके साथ ही महाराष्ट्र में ठाणे, तमिलनाडु में कांचीपुरम, उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद और पश्चिम बंगाल में उत्तर चौबीस परगना और दक्षिण चौबीस परगना जैसे वैकल्पिक शहरों का तेजी से विकास हुआ जो प्रवासी श्रमिकों के ठिकाने बने। स्पष्ट है कि ये क्षेत्र मुंबई, चेन्नई, दिल्ली और कोलकाता जाने वाले श्रमिकों को कुछ हद तक रोक पाने में कामयाब रहे।
इस बारे में दो अहम मुद्दे हैं जिन पर नीतिगत ध्यान देने की जरूरत है। पहला, सार्वजनिक सेवा आपूर्ति में सुधार करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही ग्रामीण इलाकों और छोटे कस्बों में रोजगार तैयार करने की जरूरत है ताकि देश में अतिशय प्रवासन को रोका जा सके। रोजगार और आजीविका के अवसरों को लोगों के पास लाने तथा परिवहन अधोसंरचना को मजबूत बनाने से देश भर में उपनगरीय तथा ग्रामीण इलाकों में कारोबारों के स्थानांतरण में मदद मिल सकती है।
दूसरा, कोशिश की जानी चाहिए कि शहरीकरण के एकतरफा रुझान को सुधारा जा सके और शहरों की भीड़भाड़ को कम किया जा सके। नए औद्योगिक केंद्र और उपनगर बनाकर भी प्रवासन को छोटे कस्बों की ओर स्थानांतरित किया जा सकता है। इससे देश भर में संतुलित विकास संभव होगा।
Date: 28-12-24
क्वांटम कंप्यूटर में क्रांतिकारी कदम
प्रमोद भार्गव
गूगल ने इसी महीने ‘विलो’ नाम की क्वांटम चिप बना कर तकनीक के क्षेत्र में हलचल पैदा कर दी है। अत्यंत सूक्ष्म, महज चार वर्ग सेंटीमीटर की, यह चिप एक तरफ तो तीस वर्ष से भी ज्यादा पुरानी समस्या का हल खोजने में सक्षम है, वहीं यह पांच मिनट में ऐसे काम कर सकती है, जिन्हें करने में सबसे तेज सुपर कंप्यूटर को भी अरबों साल लग सकते हैं। इस चिप से कृत्रिम बुद्धि, फ्यूजन ऊर्जा तथा तारामंडल के ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन करने में मदद मिलेगी। मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की सटीक भविष्यवाणी करने में सुविधा होगी। तकनीकी क्षेत्र में इस नवीन उपलब्धि की सभी जगह चर्चा है। एलन मस्क जैसे लोग इस उत्पाद को लेकर अचंभित हैं। इसलिए इसे ‘सुपर ब्रेन’ की संज्ञा दी जा रही है। ‘विलो’ चिप व्यावसायिक रूप में क्वांटम कंप्यूटिंग की नई दिशा तय करती हुई मील का पत्थर साबित होगी।
कुछ समय पहले तक असंभव-सी लगने वाली चीजें आज प्रौद्योगिकी की मदद से सरलता से परिणाम तक पहुंच रही हैं। एक समय संगणक के विकास ने प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव किया था। अब कृत्रिम बौद्धिकता यानी एआइ ने चिकित्सा से लेकर हथियारों के निर्माण तक हर क्षेत्र में कंप्यूटर और रोबोट के प्रयोग को नया आयाम दिया है। पारंपरिक कंप्यूटर की दुनिया में इस प्रगति के समांतर एक और अनुसंधान चल रहा है, जिसका नाम है ‘क्वांटम कंप्यूटिंग’ यानी अति-सूक्ष्मता का विज्ञान। भारत ने भी अब इस क्षेत्र में गति लाने का एलान कर दिया है। भौतिक-शास्त्र के क्वांटम सिद्धांत पर काम करने वाली इस कंप्यूटिंग में असीमित संभावनाएं देखी जा रही हैं। शोध के लिहाज से यह विषय किसी के लिए भी रुचि का हो सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार एक पूर्ण विकसित क्वांटम कंप्यूटर की क्षमता सुपर कंप्यूटर से भी ज्यादा आंकी जा रही है। इसकी शुरुआत के बाद भारतीय और पश्चिमी वैज्ञानिक मान रहे हैं कि भारतीय भाववादी सिद्धांत को जाने बिना अणु या कण में चेतना का आकलन नहीं किया जा सकता।
क्वांटम कंप्यूटिंग या यांत्रिकी एक लैटिन शब्द है। इसका अर्थ अतिसूक्ष्म कण है। इस विषय के अंतर्गत पदार्थ के अति सूक्ष्म कणों का अध्ययन किया जाता है। इनमें परमाणु, न्यूक्लियस तथा इलेक्ट्रान और प्रोटान सभी मौलिक कणों का अध्ययन शामिल है। इसमें इनके व्यवहार और उपयोगिता का अध्ययन किया जाता है। इस नवीन विषय के अध्ययन की नींव 1890 में वैज्ञानिक मैक्स प्लांक ने डाली थी। हालांकि इस समय तक वैज्ञानिक यह मान कर चल रहे थे कि भौतिकी में जितने नियमों का आविष्कार होना था, लगभग हो चुके हैं। ज्ञान ने पहले परमाणु को ही ऐसा सबसे सूक्ष्मतम कण बताया था, जिसने विश्व का निर्माण किया है। फिर आगे की खोज से ज्ञात हुआ कि परमाणु भी विभाजित हो सकता है। यानी उसे और अत्यंत सूक्ष्म कणों में बांटा जा सकता है। फलत: ये सूक्ष्म कण, इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान नाम के लघुतम रूपों में सामने आए।
कण यांत्रिकी को भविष्य का कंप्यूटर माना जा रहा है। यह परमाणु और उप परमाणु के स्तर पर ऊर्जा और पदार्थ की व्याख्या करती है। पारंपरिक कंप्यूटर बिट (अंश) पर काम करते हैं, वहीं क्वांटम कंप्यूटर में प्राथमिक इकाई क्यूबिट यानी कणांश होती है। पारंपरिक कंप्यूटर में प्रत्येक बिट का मूलाधार या मूल्य शून्य (0) और एक (एक) होता है। कंप्यूटर इसी शून्य और एक की भाषा में कुंजी-पटल (की-बोर्ड) से दिए निर्देश को ग्रहण करके समझता और परिणाम देता है। वहीं क्वांटम की विलक्षणता यह होगी कि वह एक साथ शून्य और एक दोनों को ग्रहण कर लेगा। यह क्षमता क्यूबिट की वजह से विकसित होगी।
नतीजतन, यह दो क्यूबिट में एक साथ चार मूल्य या परिणाम देने में सक्षम हो जाएगा। एक साथ चार परिणाम स्क्रीन पर प्रकट होने की इस अद्वितीय क्षमता के कारण इसकी गति पारंपरिक कंप्यूटर से बहुत ज्यादा होगी। उससे कहीं अधिक मात्रा में यह कंप्यूटर डेटा ग्रहण और सुरक्षित रखने में समर्थ होगा। इसीलिए दावा किया जा रहा है कि इसकी मदद से आंकड़ों और सूचनाओं को कम से कम समय में प्रसारित किया जा सकेगा। एआइ, जीपीटी चैट और चैटबाट जैसी तकनीक इसकी सहायता से और तेजी से गतिशील रहेंगी। मगर विलो चिप निर्माण की घोषणा ने सुपर कंप्यूटर के निर्माताओं को फिलहाल सकते में डाल दिया है, क्योंकि ‘विलो चिप’ की क्षमताएं ब्रह्मांड व्यास की तरह शक्तिशाली और असीमित बताई गई हैं।
क्वांटम कंप्यूटर की क्षमता को देखते हुए इसके विकास में भारत समेत अनेक देश लगे हैं। यही वजह है कि आविष्कार से पहले इसकी क्षमताओं का मूल्यांकन कर लेने वाले देश इसके अनुसंधान पर बड़ी धनराशि खर्च कर रहे हैं। चीन ने 15 अरब डालर खर्च करने की घोषणा की है। चीन की ई-कामर्स कंपनी अलीबाबा अलग से इस पर काम कर रही है। यूरोपीय संघ इस क्षेत्र में करीब आठ अरब डालर खर्च कर रहा है। भारत सरकार ने भी इस दिशा में शोध को बढ़ावा देने के लिए क्वांटम सूचना विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्था का गठन तो पहले ही कर लिया था, लेकिन केवल क्वांटम तकनीक पर नवीन शोध और आविष्कार के लिए 2023-24 से 2030-31 तक चलने वाले इस अभियान पर 6003.65 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। भारत इतनी बड़ी राशि पहली बार खर्च कर रहा है।
फिलहाल ऐसा माना जा रहा है कि क्वांटम यांत्रिकी का क्षेत्र जितना महत्त्वपूर्ण है, उस तुलना में इस क्षेत्र में कुशल युवाओं की संख्या बहुत कम है। एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में एक हजार से भी कम लोग क्वांटम अभियांत्रिकी या भौतिकी में शोधरत हैं। अनेक कंपनियां योग्य और कल्पनाशील लोगों की तलाश में है। हैरानी इस पर भी है कि इस क्षेत्र में भविष्य की आपार संभावनाएं होने के बावजूद इस जटिल विषय की ओर युवा आकर्षित नहीं हो रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि कुशाग्र बुद्धि वाले जो विद्यार्थी कल्पनाशील विचार रखते हैं, उन्हें हतोत्साहित कर कंपनियों के पारंपरिक कार्यों में खपाया या सरकारी नौकरियों के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसका सामना क्वांटम भौतिकी के जनक मैक्स प्लांक को भी करना पड़ा था।
जब प्लांक दसवीं कक्षा के छात्र थे, तब उन्होंने इस विषय पर काम करने का विचार अपने गुरु को दिया, तो उनका उत्तर था, ‘भौतिकी में अब नए आविष्कारों की संभावनाएं खत्म हो चुकी हैं। इसमें जितना शोध और अनुसंधान होने की संभावनाएं थीं, वे पूरी हो चुकी हैं। अत: इस विचार को छोड़ दो।’ मगर यह मैक्स की दृढ़ इच्छाशक्ति थी कि उन्होंने अपने विचार को शोध के रूप में आगे बढ़ाया और क्वांटम भौतिकी को जन्म दिया। अब यही क्वांटम भौतिकी कंप्यूटर की क्वांटम यांत्रिकी बन रही है। ‘विलो’ चिप को इस कंप्यूटर का सुपर ब्रेन माना जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि इस क्षेत्र में जो देश बढ़-चढ़ कर नेतृत्व करेगा, वही दुनिया पर राज भी करेगा।
Date: 28-12-24
उधार की मार
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने सोलह साल पुराने एक मामले को खारिज करते हुए फैसला दिया है कि बैंक अब क्रेडिट कार्ड बकाया पर 30 फीसद से अधिक ब्याज वसूल सकते हैं। अदालत ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के फैसले को खारिज किया, जिसमें क्रेडिट कार्ड बकाये पर ग्राहकों से अत्यधिक ब्याज दर वसूलने को अनुचित व्यवहार बताया गया था। आयोग के अनुसार क्रेडिट कार्ड बकाये पर 36 से 49 फीसद प्रति वर्ष की ब्याज दरें बहुत ज्यादा हैं, जो उधारकर्ताओं के शोषण की तरह है। सिटी बैंक, अमेरिकन एक्सप्रेस, एचएसबीसी और स्टैंडर्ड चार्टड बैंक द्वारा 2008 में उपभोक्ता आयोग के खिलाफ दायर अपीलों पर यह फैसला आया है। पीठ ने आयोग की इस टिप्पणी को अवैध कहा और इसे भारतीय रिजर्व बैंक की शक्तियों के स्पष्ट, सुस्पष्ट प्रत्यायोजन में हस्तक्षेप बताया। बैंकों द्वारा लगाए जाने वाली ब्याज की दर रिजर्व बैंक के निर्देशों और वित्तीय विवेक से तय होती हैं। क्रेडिट कार्ड यानी उधार पत्रक का मकसद ही तय वार्षिक शुल्क पर धन मुहैया कराना है, जिसे आसान किस्तों या निश्चित वक्त में चुकाया जाता है। हालांकि भारतीय समाज में आर्थिक समृद्धि के साथ ही क्रेडिट कार्ड का प्रयोग प्रचलित होता जा रहा है। भारतीय समाज में कर्ज लेकर खर्च करने की संस्कृति वर्जित रही है। उच्च ब्याज दरों का दबाव, उधारी के कारण अत्यधिक खर्च, धोखाधड़ी के चलते बहुत से लोग अभी भी इन सुविधाओं से तौबा करते हैं। समय पर भुगतान न कर पाने वालों की संख्या कम नहीं है। बगैर सोचे-समझे या आय से ज्यादा खर्चने वाले इस चंगुल में फंस जाते हैं। कुछ उधारकर्ता निश्चित रूप से आपात स्थिति में मजबूरन उधारी का इस्तेमाल करते हैं। मगर जब वे कर्ज चुकाने में असमर्थ होते हैं तो ब्याज दरों का अत्यधिक बढ़ना लाजिमी है। बैंक अपने नियमों से उपभोक्ताओं को अवगत जरूर कराते हैं। फिर भी उधारकर्ता इसकी अनदेखी करते हैं। पहले साहूकार जो काम किया करते थे, वित्तीय संस्थान बिल्कुल वही कर रहे हैं। हालांकि बैंकों को खुली छूट देने से बेहतर होता कि उपभोक्ता अधिकारों का ख्याल रखा जाता। कर्ज चुकाने में असफल शख्स को मोहलत देने के साथ ही उस पर पेनेल्टी भी लगाई जा सकती है। उसकी जरूरतों और कारण को समझने के प्रति वित्तीय संस्थानों को जिम्मेदार होना चाहिए। ब्याज की दरें बढ़ाने की खुली छूट संकट उत्पन्न कर सकती है।
Date: 28-12-24
आर्थिक सुधारों के शिल्पी
योगेश कुमार गोयल
देश के आर्थिक परिवर्तन के प्रणेता देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के साथ ही एक ऐसे नेता के युग का अंत हो गया, जिन्होंने आधुनिक भारत के आर्थिक परिदृश्य को आकार देने में अहम भूमिका निभाई थी। मनमोहन सिंह ने 92 वर्ष की उम्र में 26 दिसम्बर की रात दिल्ली के एम्स में अंतिम सांस ली। अपने शांत स्वभाव और बौद्धिक कौशल के लिए जाने जाने वाले मनमोहन सिंह ने भारत में ऐतिहासिक आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत करने में अहम भूमिका निभाई थी। 1991 में व्यापक सुधारों का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को खोला, तथाकथित लाइसेंस परमिट राज को खत्म किया और वैश्विक मंच पर भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनने के मार्ग पर मजबूती से स्थापित किया।
शिक्षाविद, अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी यात्रा न केवल प्रेरणादायक रही, बल्कि उनके द्वारा किए गए आर्थिक सुधारों ओर राजनीतिक निर्णयों ने भारत के इतिहास में एक नई दिशा दी। उन्हें आधुनिक भारत के आर्थिक सुधारों का वास्तुकार भी कहा जाता है। डॉ. मनमोहन सिंह ने जुलाई, 1991 में अपने बजट भाषण के अंत में कहा था, दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है, मैं इस सम्मानित सदन को सुझाव देता हूं कि भारत का दुनिया की प्रमुख योगेश कुमार गोयल आर्थिक शक्ति के रूप में उदय एक ऐसा विचार है, जिसका समय अब आ चुका है।’
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने आर्थिक विकास में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की। 2004-2014 तक भारत 10वें स्थान से उठ कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था, जिससे लाखों लोगों का जीवन स्तर सुधरा और गरीबी में कमी आई थी। मनमोहन सिंह ने एक दशक से भी ज्यादा समय तक अभूतपूर्व विकास और वृद्धि की दिशा में देश को नेतृत्व प्रदान किया। उनके द्वारा किए गए प्रमुख सुधारों में उदारीकरण के तहत लाइसेंस राज की समाप्ति और व्यवसाय शुरू करने के लिए सरल प्रक्रियाओं का निर्माण, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के दरवाजे खोलना और विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित करना, कर ढांचे को सरल और पारदर्शी बनाना, भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए बाजार पर आधारित सुधार लागू करना, ग्रामीण रोजगार और गरीबी उन्मूलन के लिए मनरेगा लागू करना शामिल हैं। इन सुधारों ने भारत को आर्थिक संकट से बाहर निकाला और उसे विश्व अर्थव्यवस्था में प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया। भारत ने डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान ऐतिहासिक वृद्धि दर देखी, जो औसतन 7.7 प्रतिशत रही और उसी के परिणामस्वरूप भारत करीब दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में सफल रहा था।
वह ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जिन्हें न केवल उन कार्यों के लिए स्मरण किया जाता रहेगा, जिनके जरिए उन्होंने भारत को आगे बढ़ाया, बल्कि विचारशील और ईमानदार व्यक्ति के रूप में भी याद किया जाएगा। उन्होंने न केवल आर्थिक विकास की गति को बनाए रखा, बल्कि सामाजिक और विकासशील नीतियों पर भी जोर दिया। हालांकि उनका कार्यकाल आलोचनाओं से भी अछूता नहीं रहा। अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें आर्थिक चुनौतियों और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा और निर्णय लेने में धीमापन उनकी सरकार के लिए नकारात्मक साबित हुए। 2जी घोटाला उनके कार्यकाल के सबसे बड़े विवादों में रहा। कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले को भी कोलगेट के नाम से जाना गया। उनके दूसरे कार्यकाल में आर्थिक सुधारों की गति धीमी रही। 22 मई, 2004 से 26 मई, 2014 तक दो बार भारत के प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह की छवि बेहद कम बोलने वाले और शांत रहने वाले व्यक्ति की रही।
हालांकि जब भी वे कुछ बोलते थे, वह सुर्खियां वन जाता था। मनमोहन सिंह ने कहा था, राजनीति में लंबे समय तक कोई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। मैं एक खुली किताब की तरह हूं और मेरे दस वर्ष का कार्यकाल इतिहासकारों के मूल्यांकन का विषय है।’ उन्होंने 27 अगस्त, 2012 को संसद में कहा था, हजारों जवाब से अच्छी मेरी खामोशी है, जिसने न जाने कितने सवालों की आवल रखी। डॉ. मनमोहन सिंह को उनके आलोचकों द्वारा चूक प्रधानमंत्री की संज्ञा दी जाती थी, लेकिन उन्होंने आम तौर पर इस पर कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं दी। इस पर उनकी पहली प्रतिक्रिया दिसम्बर 2010 में उनकी पुस्तक द चेंजिंग इंडिया के विमोचन के अवसर पर सामने आई थी, जब उन्होंने कहा था, जो लोग कहते हैं कि मैं एक मुक प्रधानमंत्री था, मुझे लगता है कि मेरी ये पुस्तकें बोलती हैं। मैं अपने लिए निश्चित रूप से कहना चाहूंगा कि मैं ऐसा प्रधानमंत्री नहीं था, जो प्रेस और मीडिया से बात करने से डरता था। मैं नियमित रूप से प्रेस वालों से मिलता था और मैंने अपने कार्यकाल में जो भी विदेश पात्राएं कीं, उनके बाद मैंने विमान में या तुरंत बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस की।”
मनमोहन सिंह ने जनवरी, 2014 में बतौर प्रधानमंत्री अपनी आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया के उन सवालों का जवाब देते जिनमें कहा गया था कि उनका नेतृत्व कमजोर है और कई अवसरों पर वे निर्णायक नहीं रहे- कहा था, मैं यह नहीं मानता कि मैं एक कमजोर प्रधानमंत्री रहा हूं बल्कि मैं ईमानदारी से यह मानता हूं कि इतिहास मेरे प्रति समकालीन मीडिया या संसद में विपक्ष की तुलना में ज्यादा उदार होगा। बहरहाल, राजनीति में डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विज्ञान बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। उनकी सरकार के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी हमेशा संदेह से परे रही। वह ऐसे राजनेता थे, जिन्हें राजनीतिक सीमाओं से परे सम्मान प्राप्त था। कुल मिलाकर तमाम आलोचनाओं के वावजूद डॉ. सिंह ऐसे नेता के रूप में याद किए जाएंगे, जिन्होंने भारत को वैश्विक मंच पर सम्मानजनक स्थान दिलाया और भारत को आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से मजबूत राष्ट्र बनाने में अहम योगदान दिया।
Date: 28-12-24
शालीनता की मिसाल मनमोहन सिंह
हरीश खरे, ( प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे लेखक के ये अपने विचार हैं )
मनमोहन सिंह को यह देश हमेशा याद करता रहेगा। देश के स्तर पर देखें, तो उनके बड़े योगदान की शुरुआत साल 1991 में तब हुई थी, जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। ऋण का बोझ बहुत बढ़ गया था। देश का खजाना खाली होने वाला था। तब पुरानी सोच और पुरानी नीतियों का ढांचा ही देश में चल रहा था, उसे बदलने का समय आ गया था। तब डॉक्टर मनमोहन सिंह ने लगभग अकेले ही अर्थव्यवस्था में सुधार के कार्य शुरू किए। जो आर्थिक सुधार उन्होंने शुरू किए, वे बिल्कुल नए थे, तो उनका विरोध भी खूब हुआ। बहुत से लोगों ने कहा कि विदेशी ताकतों के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था की नींव रखी जा रही है, लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्री के रूप में अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह आर्थिक सुधारों की राह पर चलते रहे।
वह सच्चे देशभक्त थे और उन्होंने अर्थव्यवस्था को सुधारने की दिशा में भी तभी कदम उठाए, जब वह आश्वस्त हो गए कि इस कदम से देश को दूरगामी लाभ होगा। तब बहुत से लोगों को यह लगता था कि हम अपने जाने-माने रास्ते से भटक रहे हैं, नए जोखिम भरे रास्ते पर चल पड़े हैं, मगर उस नए रास्ते का ही कमाल है कि हम आज विश्व में एक मजबूत आर्थिक मुकाम पर पहुंच गए हैं। इस मुकाम से और आगे चलते हुए यह देश मनमोहन सिंह को भूल नहीं सकता।
वह दूरदृष्टि वाले नेता थे। अक्सर कह दिया जाता है कि वह सियासत में माहिर नहीं थे, पर ऐसे सोचना गलत है। ऐसा नहीं है कि उनको सिवासत की समझ नहीं थी। उन्हें हमेशा यही लगता था कि हमारे जैसे देश में, जहां इतनी विविधता है, अनगिनत पहचानें हैं, वहां राजनीति नही हो, तो बेहतर है। राष्ट्र के रूप में हमारा अनुभव भी तब यही संकेत कर रहा था कि देश में मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए राजनीतिक स्थिरता का माहौल जरूरी है। ऐसे में, उच्च स्तर पर नेताओं के बीच परस्पर संघर्ष या राजनीति न हो। उनकी यह कोशिश रहती थी कि हम सियासी खींचतान को जितना भी कम कर सकते हैं, हमें जरूर करना चाहिए। उनकी यही खूबी रही और उनके जैसे प्रधानमंत्री ने दस साल देश को चलाया। कुछ लोग उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री कहते हैं, तो क्या हुआ? समय के अनुकूल राजनीति में उनके योगदान को कोई नहीं भुला सकता।
आज प्रधानमंत्री के रूप में उनकी मजबूतियों पर जरूर गौर करना चाहिए। प्रधानमंत्री तो बहुत आएंगे, पर मनमोहन सिंह का आर्थिक और राजनीतिक योगदान अमिट रहेगा। उन्होंने सही समय में देश को सही दिशा में ले चलने का आह्वान किया। किसी भी देश को देख लीजिए, अगर सही समय पर सही फैसला न लिया जाए, तो उसे आगे बढ़ने का सही रास्ता नहीं मिलता।
एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वह हमेशा याद किए जाएंगे। प्रधानमंत्री के रूप में दस साल पद पर रहते हुए उन्होंने एक मिसाल कायम की कि सार्वजनिक जीवन में शालीनता, शिष्टाचार और विनम्रता बहुत महत्वपूर्ण हैं। अगर कोई समाज इन खूबियों से दूर हटता है, तो उस समाज में ओछापन आता है, वहां छोटी-छोटी बातों पर लोग झगड़ा करने लगते हैं। हिंसा होने लगती है और देश की तरक्की पर बुरा असर पड़ता है। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के इस आधुनिक दौर के शासन- प्रशासन में शालीनता व विनम्रता को सुनिश्चित करना उनकी एक बड़ी कामयाबी रही।
यह भी ध्यान देना चाहिए कि देश में किसी भी राजनीतिक पार्टी को जब पूर्ण बहुमत नहीं मिल पा रहा था, जब मिली-जुली सरकार का दौर आया, तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक सर्वमान्य नेता के रूप में बहुत कारगर साबित हुए। उन्होंने कुछ ही समय में यह साबित कर दिया कि वह सबको साथ लेकर चल सकते हैं। उनकी वह सहजता अब एक मिसाल रहेगी। जब वह प्रधानमंत्री थे और में उनका मीडिया सलाहकार था, तब महाराष्ट्र से कुछ बच्चे उनसे मिलने आए थे। मैंने उन बच्चों को प्रधानमंत्री से मिलवाया, बातचीत के दौरान एक बच्चे ने पूछा कि बचपन में आप कैसे पढ़ते थे? तब प्रधानमंत्री ने बचपन को याद करते हुए बताया था कि उनके घर में लाइट नहीं थी।
वह सड़क किनारे लैप पोस्ट के नीचे बैठकर पढ़ते थे। इस बात का जिक्र वह नहीं करते थे, न इसे उन्होंने बढ़ा-चढ़ाकर कभी पेश किया। यह बात हम नहीं भूल सकते कि एक साधारण भारतीय, जिसके पीछे कोई बड़ी ताकत नहीं थी, जो किसी बड़े सियासी परिवार से नहीं आया था, जो एक अल्पसंख्यक समुदाय से आया था, जो सिखों में भी सबसे सशक्त जट सिख वर्ग से नहीं था। हर तरह से जिनकी बुनियाद साधारण थी। ऐसे व्यक्ति ने अपनी मेहनत से दिन-रात पढ़ाई करके, ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज से ज्ञान प्राप्त किया और उस ज्ञान को देश की सेवा में लगा दिया।
जब उन्हें साल 2004 में प्रधानमंत्री बनाया गया, तो वह अपने आप में देश की योग्यता के साथ एक प्राकृतिक न्याय की तरह था। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि ‘शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पिएगा, वह दहाड़ेगा।’ उनकी यह बात डॉक्टर मनमोहन सिंह पर पूरी तरह सटीक बैठती थी। वह पढ़ते हुए ही प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचे थे। उनके पास मूल रूप से अध्ययन, अध्यापन और शोध के अलावा कोई ताकत नहीं थी। लगातार ज्ञान प्राप्त करते रहना, खुद को समय के अनुरूप ढालते रहना और उसका जहां जितना संभव हो, समाज व देशहित में इस्तेमाल करना । वास्तव में, मनमोहन सिंह जीवन भर यही तो करते रहे। आंबेडकर की बात उन पर सबसे ज्यादा लागू होती है।
उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि कोई व्यक्ति पढ़ाई करके भी प्रधानमंत्री बन सकता है। मनमोहन सिंह इसकी मिसाल हैं। कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाला व्यक्ति केवल पढ़ाई के बल पर भी देश सेवा का सर्वोच्च अवसर पा सकता है, जैसा मनमोहन सिंह ने पाया। वह केवल देश के वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री ही नहीं बने, बल्कि देश को दिशा देने वाले दिग्गज भारतीय नेताओं में शुमार हो गए।
मैंने तो करीब से देखा है, विश्व के दिग्गज नेता उनसे कितने सम्मान के साथ मिलते थे। तब परस्पर जो आदर भाव होता था, वह अद्भुत और दर्शनीय होता था। उनसे मिलने आने वाले लोग भी आश्चर्य में पड़ जाते थे कि लोकतंत्र में एक ऐसा इंसान भी ऐसी सर्वोच्च ऊंचाई पर पहुंच सकता है। वह नेताओं और छात्रों के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे। वह केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए आदर्श रहेंगे।