23-12-2024 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date: 23-12-24
‘First World’ Green Cover-ism is Possible
ET Editorials
India’s forest and tree cover has increased by 1,445 sq km. Huzzah! Especially in these sad AQI times. That’s an increase of roughly Delhi’s area. But concern pushes celebration with a deeper read of the ‘India State of Forest Report 2023’. Significant regional decline in forest cover, increase in forest fire cases, loss of carbon sequestration opportunities due to increased diversion to non-forest use are worries. Implication of the changing spatial and qualitative nature of forest cover need to be analysed and reflected upon in policy.
There has been significant decadal decline in forest cover between 2013 and 2023 in areas that have been traditionally considered to be primarily green, such as Madhya Pradesh, Ladakh, Karnataka, Arunachal, Mizoram and Nagaland. Loss in these regions affects hydrology, in turn impacting availability of water for consumption and food production. Western Ghats lost 58 km2 of forest over the decade. The loss in biodiversity-rich regions is of concern. Similarly, mangrove forests have declined in Gujarat, particularly in Kutch and in the Andamans. Assessment on the drivers of these regional losses must be ascertained and policy interventions to stem these losses must be implemented. Also, more effort must be made to counter rising heat traps in urban areas by planned greening.
Forest and tree cover is not just about India’s commitment to create an additional carbon sink of 2.5-3 bn t of CO2equivalent by 2030. That is an abstraction to most. It must be also about ensuring robust clean air and water, stemming biodiversity loss, preventing degradation of land and restoring soil health. We get, rightfully, excited about flyovers, highways, metros about yardsticks for progress. Greening should be another.
Date: 23-12-24
सुधारों पर सक्रिय हों राज्य
आदित्य सिन्हा, ( लेखक लोक नीति विश्लेषक हैं )
आधुनिक काल में गवर्नेस से आशय केवल नियमों एवं नियमनों के प्रबंधन तक सीमित न रहकर व्यक्तियों एवं उद्यमियों के लिए एक अनुकूल परिवेश तैयार करने तक विस्तारित गया है। मोदी सरकार इस दिशा में आरंभ से ही गंभीरता के साथ सक्रिय रही है। जन विश्वास अधिनियम, 2023 इसका ही एक उदाहरण है, जिसे प्रस्तावित जन विश्वास विधेयक 2.0 से नए आयाम दिए जाने की तैयारी है। जन विश्वास अधिनियम के माध्यम से पहले ही 40 से अधिक आपराधिक प्रविधानों को हटाकर उनके स्थान पर कुछ आर्थिक हर्जाने और अपेक्षाकृत सुगम अनुपालनों की व्यवस्था की जा चुकी है। जन विश्वास अधिनियम 2.0 इस विजन को और आगे ले जाता है, जिसमें ऐसा ढांचा तैयार किया जा रहा है जिसमें नागरिकों एवं कारोबारियों को विरोधी के बजाय सहयोगी के रूप में देखने की मंशा है। शासन संबंधी ऐसे सुधार लालफीताशाही से मुक्ति दिलाने से परे तमाम मूर्त एवं अमूर्त फायदों का माध्यम भी बनते हैं। सबसे पहला लाभ तो यही कि ये अनुपालन आवश्यकताओं के बोझ को हटाकर उद्यमों को नवाचार एवं वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करने में सहायक बनकर आर्थिक उत्पादकता को बढ़ाते हैं। खासतौर से छोटे उद्यमों एवं स्टार्टअप्स के लिए इन पहलुओं की बहुत उपयोगिता है, क्योंकि अक्सर उन्हें नियामकीय बाधाओं से दो-चार होना पड़ता है। दूसरा, नियमों के सुगम बनने से सरकार द्वारा उद्यमिता को प्रोत्साहन, आर्थिकी का विविधीकरण और रोजगार सृजन को बढ़ावा दिया जाता है। तीसरा, छोटे-मोटे मामले अदालती दायरे से बाहर ही सुलझ जाते हैं, जिससे न्याय की प्रक्रिया पर बोझ घटने से उसकी गति तेज होती है। चौथा लाभ यही कि इससे सरकार और नागरिकों के बीच भरोसे की बुनियाद मजबूत होती है कि सरकार उन्हें दंडित करने से अधिक उनकी साझेदारी को महत्व देती है।
इन सुधारों के अमूर्त लाभ भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। जिस गवर्नेस माडल में अनावश्यक रूप से दंडित करने की भावना नहीं होती, उसमें नागरिकों एवं उद्यमों के भीतर अपने कार्यों की जिम्मेदारी का दायित्वबोध बढ़ता है। इससे विश्वास एवं परस्पर जवाबदेही की संस्कृति विकसित होती है, जो न केवल लोकतंत्र को सशक्त अपितु एक सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण करती है जब नियामकीय मोर्चे पर बोझ घटता है और सहयोग समन्वय पर जोर होता है तो इसके माध्यम से सरकार उस बुनियाद को ही मजबूत करती है, जिसमें नागरिक और उद्यम नवाचार, वृद्धि और समग्र बेहतरी पर ध्यान देने में सक्षम होते हैं। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय प्रगति को तेजी के पंख लगते हैं।
जहां केंद्र सरकार नियामकीय बोझ घटाने और विश्वास आधारित गवर्नेस ढांचे को सशक्त बनाने के लिए विभिन्न उपाय कर रही है तो राज्य सरकारों को भी ऐसे सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। अखिरकार रोजमर्रा के कई मामलों में नागरिकों और उद्यमों का केंद्र के बजाय स्थानीय निकाय और राज्य सरकारों के साथ कहीं ज्याद सरोकार जुड़ा होता है। चाहे परमिट लेना हो, विवादों का समाधान हो, या आवश्यक लोक सेवाओं तक पहुंच जैसे काम मुख्यतः स्थानीय निकाय और राज्य सरकार के स्तर पर ही संपादित होते हैं। असल में चाहे जीवन की सुगमता हो या कारोबारों के लिए सुगम परिवेश बनाने से जुड़ी पहल तभी सफल हो सकती हैं जब शीर्ष से लेकर जमीनी स्तर पर उन्हें उचित रूप से क्रियान्वित किया जा सके। व्यक्तियों और उद्यमों को जिन सबसे प्रमुख अवरोधों से जूझना पड़ता है उन्हें दूर करने की कुंजी मुख्य रूप से राज्य सरकारों के पास होती है सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता, गवर्नेस की सक्षमता और जीवन एवं उद्यम को सही दिशा में उन्मुख करने से संबंधित अधिकांश पहलू इन्हीं स्तरों पर प्रभावित होते हैं इसलिए राज्य और स्थानीय निकायों को अपनी जिम्मेदारियां समझकर सार्थक पहल एवं क्रियान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
मध्य प्रदेश ने गत सप्ताह एमपी जन विश्वास (संशोधन का प्रविधान) विधेयक, 2024 पारित कर एक अच्छा उदहरण प्रस्तुत किया है। इसका आधार केंद्र सरकार का जन विश्वास अधिनियम, 2023 ही है। इस ऐतिहासिक विधायी पहल का उद्देश्य कानूनी प्रक्रियायों को सुगम बनाना, पारदर्शिता सुनिश्चित करना और गुड गवर्नेस को बढ़ावा देकर सामान्य नागरिकों और उद्यमिकों की राह आसान बनाना है। इस विधेयक के अंतर्गत पांच प्रमुख विभागों की 64 धाराओं में संशोधन किया गया है, जिसमें औद्योगिक नीति एवं निवेश संवर्धन, ऊर्जा, सहकारिता, श्रम और शहरी विकास जैसे विभागों के विषय शामिल हैं। इसके तहत छोटी-मोटी गलतियों पर जेल के बजाय हर्जाने का प्रविधान और 920 अप्रासंगिक कानूनों को समाप्त कर आधुनिक दौर के अनुकूल उन्हें सुसंगत करना प्रमुख सुधारों में शामिल हैं। निःसंदेह ये सुधार सक्षम एवं कारोबार अनुकूल परिवेश को बढ़ावा देने में सहायक बनेंगे।
अन्य राज्यों को भी मध्य प्रदेश से सीख लेकर इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। ऐसे सुधार तमाम अवरोधों को दूर कर राज्य की उन आर्थिक संभावनाओं को भुनाने में सहायक बनेंगे, जिन्हें विभिन्न बाधाओं के चलते अभी तक पूरी तरह भुनाया नहीं जा सका। हालांकि यह एकमुश्त रूप से नहीं किया जा सकता । वही नियामकीय ढांचा बेहतर होता है जो समय और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप स्वयं को ढाल सके। ऐसे में राज्य सरकारों को ऐसा संस्थागत ढांचा बनाना चाहिए जो प्रत्येक पांच से 10 वर्षों के दौरान नीतियों की नियमित अंतराल पर समीक्षा के साथ उनके परिणामों एवं वर्तमान प्रासंगिकता पर प्रकाश डाल सके। इसमें नीतियों- नियमों की परख भी संभव है कि अपने मूल उद्देश्यों पर वे कितने खरे उतरे। यदि राज्य सरकारें इस दिशा में अपनी गति बढ़ाती हैं तो इससे केंद्र सरकार के जीवन को सुगम बनाने के प्रयासों को बड़ा सहारा मिलेगा।
Date: 23-12-24
पारदर्शिता और गोपनीयता
संपादकीय
सरकार ने चुनाव के नियमों में कुछ बदलाव किए हैं ताकि उनका दुरुपयोग रोका जा सके। सीसीटीवी कैमरा और वेबकास्टिंग फुटेज तथा उम्मीदवारों की वीडियो रिकॉर्डिंग जैसे इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज के सार्वजनिक निरीक्षण को रोक दिया है। निर्वाचन आयोग की सिफारिश के आधार पर कानून मंत्रालय द्वारा चुनाव संचालन नियम, 1961 के 93 में यह संशोधन किया गया। इसके पीछे एक अदालती मामला बताया जा रहा है। आदर्श आचार संहिता अवधि के दौरान के इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज को इनसे अलग रखा गया है। आयोग का कहना है कि मतदान केंद्रों के अंदर के फुटेज के दुरुपयोग से मतदान की गोपनीयता प्रभावित हो सकती है। अंदेशा व्यक्त किया गया कि कैमरे की इस फुटेज का प्रयोग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मार्फत से फर्जी विमर्श गढ़ने के लिए किया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर और नक्सल प्रभावित जगहों जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की गोपनीयता के महत्त्व को भांपते हुए आयोग ने जिन दस्तावेज का कोई संदर्भ नहीं है, उन्हें सार्वजनिक निरीक्षण की अनुमति न देने की बात की। विपक्षी दलों का आरोप है कि चुनाव आयोग पारदर्शिता से डर रहा है। कांग्रेस ने इसको कानूनी तौर पर चुनौती देने की भी बात की। देश का चुनाव आयोग संवैधानिक निकाय है। वह अनुच्छेद 324 के अनुसार देश भर में चुनाव कराने के लिए स्थापित किया गया है। बीते कुछ सालों से चुनाव ‘आयोग की कार्यप्रणाली को लेकर जनहित याचिकाएं दायर की जाती रही हैं और इसकी पारदर्शिता को लेकर तरह-तरह के विवाद होते रहे हैं। आयोग पर आरोप लगते रहते हैं कि मोदी सरकार उसे कठपुतली बना कर रखना चाहती है। बीते साल भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर बवाल गहराया था और मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था। आयोग की स्वायत्तता को लेकर समझौता किया जाना कभी उचित नहीं कहा जा सकता। मगर यह कुतर्क भी अनुचित है कि पारदर्शिता की आड़ में गोपनीयता भंग किए जाने जाने की छूट जारी रहने दी जाए। आयोग को अपनी स्वायत्तता का भी ख्याल रखना चाहिए। जनहित याचिकाओं के उद्देश्य और उनके पीछे की राजनीति को समझे बगैर अदालतों को निर्णय देने से बचना होगा। जरूरी है वे भी गोपनीयता में खलल डालने वालों की मंशा भांपे और उन्हें सख्त हिदायत दें।
Date: 23-12-24
चौथी अर्थव्यवस्था बनने की ओर भारत
आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार)
दिल्ली अभी दूर है। भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का काम वित्त वर्ष 2024-25 में पूरा होना था। साल 2019 के चुनाव के बाद आए पहले बजट में भी यह बात रेखांकित की गई थी। तब कौन जानता था कि इस बीच दुनिया को किन-किन तूफानों का सामना करना पड़ेगा। इतिहास की सबसे बड़ी विभीषिका कोरोना महामारी और दुनिया की अर्थव्यवस्था पर उसके झटके के बावजूद आज यह संतोष के साथ कहा जा सकता है कि भारत अपने इस लक्ष्य से भटका नहीं है, हां, मंजिल अभी कुछ दूर जरूर दिख रही है। वैसे, साल 2024 के जाते-जाते यह देखना दिलचस्प है कि आर्थिक मोर्चे पर यह साल देश- दुनिया के लिए कैसा रहा? दोनों ही लिहाज से देखें, तो इस साल की सबसे बड़ी घटनाएं अर्थनीति से नहीं, बल्कि राजनीति से जुड़ी हैं यानी यह साल एक बार फिर इस बात पर मोहर लगाकर जा रहा है कि अर्थशास्त्र अर्थ से ज्यादा राजनीति पर निर्भर है।
दुनिया की राजनीति की सबसे बड़ी घटना तो अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत है। एक ऐसा चुनाव, जिसमें पहले उन्हें कहीं गिना नहीं जा रहा था; काफी मशक्कत के बाद उनकी पार्टी उन्हें उम्मीदवार बनाने को राजी हुई; उसके बाद भी वोटों की गिनती तक लगा कि उन्हें कड़ी टक्कर मिल रही है, लेकिन जब प्रचंड विजय का पूरा नतीजा सामने आया, तो अमेरिका समेत दुनिया भर के लोग हैरान रह गए। अभी तो ट्रंप राष्ट्रपति की कुर्सी पर वापस बैठे भी नहीं हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मोर्चे पर वह क्या करने वाले हैं, इसकी झलक दिख रही है। एक तरफ माना जा रहा है कि विश्व बंधुत्व जैसी भावनाएं किनारे रखकर अब हरेक देश अपने अपने हित सामने रखेगा। खासकर अमेरिका में माना जा रहा है कि अब अमेरिकी प्रभुत्व की वापसी हो रही है और चीन पस्त होने वाला है।
लेकिन जिन लोगों ने भी चीन के पस्त होने की कहानी कही, उनके लिए भी साल का क्लाइमेक्स चौंकाने वाला है। अपनी अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से मुकाबले के लिए चीन ने अचानक आर्थिक पैकेज की घोषणा की और साल खत्म होते-होते ऐसा लग रहा है। कि वह इस मामले में कोई कसर छोड़ने के मूड में नहीं है। इसी का असर है कि बीजिंग से मुंह मोड़ते विदेशी निवेशक अचानक वापस जाने की होड़ में लग गए। चीन की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की उसकी कोशिश कितनी कामयाब होती है, यह तो कहना अभी मुश्किल है, पर 2024 के अंत में चीन की यह कोशिश ध्यान देने लायक जरूर बन गई है।
ट्रंप और राजनीति को किनारे रख दें, तो औद्योगिक मोर्चे पर या कारोबारी दुनिया या आम इंसान की जिंदगी या रोजगार के लिहाज से कृत्रिम मेधा, यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का तेज प्रसार इस साल की बड़ी घटनाओं में से एक है। अभी इस बात पर बहस ही चल रही थी कि एआई को हमारे जीवन में किस हद तक दखल देने की छूट मिलनी चाहिए कि वह एक ऐसी हकीकत बन गया, जिससे मुंह मोड़ना असंभव है। बड़ी कंपनियों के बड़े कारोबार, सियासी पार्टियों के प्रचार युद्ध से लेकर स्कूली बच्चों के होमवर्क तक में एआई न सिर्फ घुसपैठ कर चुका है, बल्कि घर कर चुका है। एआई का असर ही है कि कंप्यूटर चिप बनाने वाली कंपनी एनवीडिया इस साल एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी बन गई। हालांकि, इसके बाद इसमें तेज गिरावट आई, जिसने इसे फिर तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया, पर पिछले दस साल में इस कंपनी के शेयरों में 3,266 गुना उछाल आया है।
भारत की अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी इस साल की सबसे बड़ी बात नरेंद्र मोदी सरकार का तीसरी बार सत्ता में लौटना ही है। व्यापार और विदेशी निवेश की नजर से इसे निरंतरता का संकेत माना जाता है, यानी अगले पांच साल तक अर्थनीति इसी रास्ते पर आगे बढ़ेगी, यह आश्वस्ति है। शेयर बाजार में जबर्दस्त तेजी का दौर इस साल भी जारी रहा। हालांकि, साल के अंत में कुछ आशंकाएं दिख रही हैं, लेकिन उससे पहले ही आईपीओ बाजार में ऐसी धूम मची कि कंपनियां इस साल कुल मिलाकर करीब तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम शेयर बाजार से उठा चुकी हैं। अब भी जो अच्छे आईपीओ आ रहे हैं, उनके सामने जिस अनुपात में अर्जियां लग रही हैं, वे दिखाती हैं कि भारत में कितनी बड़ी रकम अभी बाजार में और आ सकती है।
फिर सरकार की पीएलआई स्कीम’ अपने रंग दिखा रही है। सबसे बड़ा असर स्मार्टफोन के मामले में दिख रहा है, जहां भारत से निर्यात में 42 प्रतिशत की उछाल आई है। सिर्फ अक्तूबर में भारत से दो अरब डॉलर के स्मार्टफोन बाहर गए हैं, जो एक रिकॉर्ड है। उधर, हमारे रहन-सहन के बदलते रंग-ढंग का असर भी 2024 में साफ दिखाई पड़ा। फूड डिलीवरी कंपनी जोमैटो अब मार्केट कैप के लिहाज से टाटा मोटर्स और बजाज ऑटो से बड़ी कंपनी बन गई है और इसे सेंसेक्स में भी जगह मिल गई है। इसके साथ ऐसी न जाने कितनी बड़ी छोटी कंपनियां या स्टार्टअप खड़े हो गए हैं, जो हमारे आपके शौक या जरूरतें पूरी करते हैं और आस-पास के अनेक लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं। लेकिन 2024 की एक बड़ी चिंता बाजार में मांग कम होना है। लाखों कारें बिना बिके खड़ी हैं। लगातार दो तिमाही कंपनियों के नतीजे कमजोर आए हैं। बाजारों में मूड सुधरता नहीं दिख रहा और साल बीतते-बीतते यह फिक्र शेयर बाजार पर भी हावी होती दिख रही है। उम्मीद है, जनवरी से माहौल बदलेगा।
भारत ब्रिटेन को पछाड़कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। पूरे आसार हैं कि नए साल में वह जापान को भी पीछे छोड़ेगा और चौथे नंबर पर पहुंचेगा। हालांकि, पांच ट्रिलियन का लक्ष्य दूर है, लेकिन साढ़े चार ट्रिलियन डॉलर के आस-पास पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है।
साल 2025 में भारत की तरक्की का दारोमदार अब इस पर है कि हर मोर्चे पर कितनी समझदारी दिखाई और बरती जाती है। जनवरी में डावोस में होने वाले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की इस साल की थीम है ‘कोलैबोरेशन फॉर द इंटेलिजेंट एज’, यानी समझदारी के दौर में सहयोग । शायद यही मंत्र हमारे लिए भी बेहतर भविष्य की नींव रख सकता है।