04-11-2024 (Important News Clippings)

Afeias
04 Nov 2024
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Date: 04-11-24

Foetal Mistake

In a terribly gender unequal society, U-turn ideas such as legalising pre-birth sex determination are dangerous

TOI Editorials

How the status of women and the opportunities available to them in India have improved over time is a topic that can have as many answers as debaters. But that progress has been patchy is indisputable. A data point showing this starkly is that the share outside the labour force due to care responsibilities is 53% for women and 1% for men. The ILO report highlighting this disparity also suggests how doubly cruel it is. Women not only carry a disproportionate burden of unpaid work, they are then punished with a lower status vis-à-vis men as “breadwinners”. So, the second indisputable case is that India must only march forward on gender equality. There is absolutely no room for any U-turns.

Obviously, it is not women alone who are wounded by any agency or policy attempting such reverses. All that chains them also brutishly keeps the whole of society and economy from reaching its potential. Sometimes U-turn campaigns borrow the language of liberation and technological progress, and this disguise has to be dismantled. A recent example is Indian Medical Association president RV Asokan grabbing headlines in aid of legalising prenatal sex determination tests. His contention is that the PC-PNDT prohibitions should be pulled down because these have been a “massive failure” over 30 years. But would anyone ask for legally sanctioning murder because penalties haven’t ended murders over the centuries?

Offspring sex selection favouring the male offspring is a cruel indicator of the life of a female not being valued and even despised across societies. But it would be a wretched country that would leave societies to change this barbaric practice at their own leisure. Strict implementation of laws relating to diagnostic techniques for determination of the sex of the foetus is the more just, rational and productivepath. That India’s sex ratio at birth is still only 933 reflects lackadaisical implementation and zero room for further laxity.

Asokan’s suggested alternative to monitoring the clinics is to “tag” every unborn child and hold “people” responsible if anything “untoward” happens. As if putting all women under surveillance and threat of punishment wouldn’t be an even more perverse use of technology. The unblushing ease with which such anti-women propositions continue to be proffered as plans for progress shows how deep the sexist taint still runs among us. Deleting this is essential to make our families, schools and workplaces the best of what these can be.


Date: 04-11-24

Biodiversity is the ‘New’ Oil, Protect It

ET Editorials

Representatives from 180 countries met at the UN COP16 Biodiversity Summit in Cali, Colombia, for two weeks. But key issues, including mobilising and distributing $200 bn annually by 2030, a target set at the last biodiversity talks in Montreal, remained unresolved, with developed countries pushing back. Two agreements emerged: payments by pharma, cosmetics and food companies for the use of genetic resources from biodiversity-rich developing countries, and creation of a permanent body for indigenous peoples to advise biodiversity COPs.
The contentious issue of establishing a new fund will be revisited at inter-sessional meetings next year. As with the climate COP that begins in Baku, Azerbaijan, next week, the mobilisation of funds from developed to developing countries remains a hot-button issue. Bridging the gap between what’s pledged and what’s needed for saving the world’s biodiversity will require out-of-the-box thinking and flexibility, along with greater accountability, predictability and clarity to ensure existing funds aren’t reclassified. On average, wildlife populations have declined by almost 70% since 1970. Worldwide, the impact is so large that wild mammals declined as ashare of the global mammal biomass from 17% in 1900 to just 4% in 2015. Humans and livestock account for the remaining 96%.

India and other developing countries ensured national laws on access to, and benefit-sharing from, resources weren’t overridden by global mechanisms. While the outcome has its limitations, the agreement opens possibilities for monetary benefits to flow back to communities. The outcomes at Cali should prompt biodiversity-rich, especially developing, countries like India to strengthen mechanisms for conservation and fair use of resources.


Date: 04-11-24

आयुष्मान भारत में हो क्षमता विस्तार

संपादकीय

आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत 70 से अधिक उम्र के सभी वरिष्ठ नागरिकों को (चाहे वे किसी भी आय वर्ग के हों) स्वास्थ्य बीमा मुहैया कराना, भारत की जनसांख्यिकी में बदलाव की समझ को दर्शाता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक साल 2050 तक भारत में उम्रदराज लोगों की हिस्सेदारी बढ़कर 20 फीसदी तक हो जाएगी।

यह देखते हुए कि जनसंख्या के इस समूह का चिकित्सा व्यय ज्यादा होता है, अधिक सरकारी सहायता का स्वागत किया जाना चाहिए। यह दु:खद है कि दिल्ली और पश्चिम बंगाल ने, जहां उम्रदराज लोगों की जनसंख्या क्रमश: आठ और 11 फीसदी है, इस योजना से बाहर रहने का विकल्प चुना है, जैसा कि वे पहले भी साल 2018 में पीएम-जेएवाई की शुरुआत के समय कर चुके हैं।

इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों का यह दावा है कि उनका प्रशासन अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य योजनाएं मुहैया करा रहा है, जैसा कि और कहीं नहीं है।

गैर भाजपा शासित राज्य केरल और तमिलनाडु में भी यकीनन राज्य स्तर की ऐसी सबसे अच्छी योजनाएं हैं, लेकिन उन्होंने केंद्रीय योजना को अपने राज्यों में संचालित करने की अनुमति देने का विकल्प चुना है। ऐसा करके उन्होंने अपने नागरिकों को व्यापक विकल्प मुहैया कराया है और इससे जो प्रतिस्पर्धा होगी उससे निस्संदेह उनकी योजना में ही दक्षता बढ़ेगी। यह महज संयोग नहीं है कि इन दोनों राज्यों में पीएम-जेएवाई के इस्तेमाल की दर सबसे ज्यादा है।

यह सच है कि योजना के विस्तार से चिकित्सा बुनियादी ढांचे पर अधिक दबाव पड़ने का अनुमान है। योजना का उद्देश्य प्रति परिवार को, उम्र चाहे कुछ भी हो, माध्यमिक और तृतीयक देखभाल अस्पतालों के माध्यम से साल भर में 5 लाख रुपये तक के स्वास्थ्य बीमा के तहत कैशलेस और पेपरलेस इलाज सुविधा मुहैया कराना है। इसके तहत आर्थिक रूप से सबसे निचले स्तर की 40 फीसदी आबादी के परिवार लाभार्थी हैं।

फिलहाल योजना तक लक्षित लाभार्थियों के 56 फीसदी हिस्से की पहुंच हो चुकी है। नई योजना के तहत जिन परिवारों को पहले से ही पीएम-जेएवाई का लाभ मिल रहा है और उनमें 70 साल से अधिक उम्र के लोग हैं, उन्हें 5 लाख रुपये के बीमा के टॉप-अप का फायदा मिलेगा। इस विस्तार से देश के करीब 4.5 करोड़ परिवारों के 6 करोड़ वरिष्ठ नागरिकों को फायदा मिलेगा। हालांकि योजना का लाभ अधिक से अधिक पहुंचाने के लिए सरकार को मौजूदा योजनाओं की उन कुछ प्रमुख चुनौतियों से तत्काल निपटना होगा जो विस्तार के बाद और बढ़ सकती हैं।

अस्पताल सुविधाओं की कमी ऐसी ही एक गंभीर समस्या है। इस योजना का संचालन करने वाले राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) के अनुसार, आयुष्मान भारत से देश भर में करीब 30,000 अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र जुड़े हुए हैं जिनमें से 13,582 निजी क्षेत्र के हैं।

योजना के लिए पात्र जनसंख्या के लिहाज से देखें तो यह संख्या बहुत ही छोटी है, यही नहीं देश के सभी राज्यों में ऐसे अस्पतालों या स्वास्थ्य केंद्रों का वितरण भी समान नहीं है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की एक रिपोर्ट के अनुसार, कई राज्यों में तो प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर दो से दस अस्पताल ही सूचीबद्ध हैं।

हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि मरीजों की बढ़ती संख्या विशेष रूप से छोटे और मध्यम अस्पतालों के लिए कठिनाई बढ़ाएगी, जो सीमित मार्जिन पर काम करते हैं। योजना के वित्तीय ढांचे को भी सुव्यवस्थित करने की आवश्यकता है। वैसे तो पीएम-जेएवाई ने लोगों के चिकित्सा खर्चों में कुछ कटौती की है, लेकिन अध्ययनों में यह देखा गया कि इसने वित्तीय जोखिम को व्यापक रूप में खत्म नहीं किया है।

इसकी मुख्य वजह यह है कि पीएम-जेएवाई के तहत ओपीडी (बाह्य-रोगी ) परामर्श के लिए भुगतान नहीं किया जाता। इसके अलावा कई अस्पताल संघों ने कम दर मिलने और प्रतिपूर्ति में देरी की शिकायत की है।

उदाहरण के लिए भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) की पंजाब शाखा ने राज्य के सूचीबद्ध निजी अस्पतालों में इस योजना के तहत उपचार तब तक रोकने का ऐलान किया है, जब तक 600 करोड़ रुपये की बकाया राशि नहीं मिल जाती। ऐसी बुनियादी प्रशासनिक समस्याओं का समाधान करना इस योजना के लिए महत्त्वपूर्ण है, ताकि आम आदमी की स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में सार्थक रूप से सुधार हो सके।


Date: 04-11-24

खतरे का तापमान

संपादकीय

पिछले कई दशक से वैश्विक ताप में बढ़ोतरी चिंता का विषय है। इसकी वजह से समूची दुनिया में गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं। मगर विडंबना है कि इस मसले पर ऐसा कुछ भी ठोस नहीं किया जा रहा, जिससे तापमान संतुलन की उम्मीद जगे। उल्टे अब मौसम में उथल-पुथल इस कदर होनी शुरू हो गई है कि जिन महीनों में ठंड की आहट मिलने लगती थी, उनमें तापमान चढ़ा हुआ रहने लगा है, जो आने वाले संकट का संकेत दे रहा है।

मसलन, भारत मौसम विज्ञान विभाग के मुताबिक, देश में इस वर्ष अक्टूबर का महीना सन 1901 के बाद सबसे अधिक गर्म रहा और औसत तापमान सामान्य से 1.23 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया। यानी एक सौ चौबीस वर्षों के बाद पहली बार अक्टूबर के महीने में मौसम में गर्मी इतनी थी कि उसे सामान्य नहीं माना जा रहा है। अनुमान जताया जा रहा है कि नवंबर में भी अगले दो सप्ताह तक तापमान सामान्य से दो से पांच डिग्री ऊपर बना रहेगा।

फिलहाल मौसम के उतार-चढ़ाव ने मौसम विज्ञानियों के सामने भी अध्ययन का नया फलक खोल दिया है। हालांकि बताया जा रहा है कि इस बार पश्चिमी विक्षोभ के अभाव और बंगाल की खाड़ी में सक्रिय चक्रवात सहित कई निम्न दबाव वाले क्षेत्रों के बनने से औसत न्यूनतम तापमान ज्यादा दर्ज किया गया। हाल के दशकों में वैश्विक ताप में बढ़ोतरी के लिए जिन कारकों की पहचान की गई है, उसका हल निकालने को लेकर सक्रियता तो दिखती है, मगर जमीनी हकीकत यह है कि जिन देशों को कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना जाता है, वहां इसमें कमी करने को लेकर कोई उत्सुकता नहीं दिखती।

सारी जवाबदेही विकासशील देशों पर थोप दी जाती है। हालांकि यह समस्या केवल एक या कुछ देशों तक सीमित नहीं है। समूचा विश्व इससे प्रभावित है और मौसम की इस अनियमितता को सभी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। मौसम की अपनी गति होती है और उसमें समय-चक्र के मुताबिक तापमान में उतार-चढ़ाव होता रहता है, लेकिन अगर वक्त रहते इस संकट से निपटने के उपाय नहीं किए गए तो इसकी मार को झेलना मुश्किल होता जाएगा।


Date: 04-11-24

मार मौसम की

संपादकीय

अक्टूबर में न्यूनतम तापमान के मामले में एक सौ तेइस सालों का रिकॉर्ड टूटा है। नवम्बर में भी यह सिलसिला जारी रहने की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। मौसम विभाग का मानना है कि नवम्बर में उत्तर-पश्चिम भारत को छोड़ कर सभी भौगोलिक क्षेत्रों में रातें सामान्य से अधिक गर्म होंगी। दक्षिण-पश्चिम मानसून के देरी से बाहर निकलने से मानसून का प्रवाह जारी रहा। अखिल भारतीय औसत न्यूनतम तापमान 21.85 डिग्री सेल्यिस रहा जबकि सामान्य तापमान 20.01 डिग्री होता है। जलवायु परिवर्तन की चपेट में इस वक्त पूरी दुनिया है। एशियन डवलपमेंट बैंक के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत की जीडीपी में 24% से अधिक का घाटा हो सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार इसका हल जल्द नहीं ढूंढा गया तो तटीय संपत्तियों को खरबों डॉलर का नुकसान हो सकता है, जिससे 2070 तक तीस करोड़ लोग तटीय बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं। हीट वेव्ज, उष्णकटिबंधीय तूफानों, बाढ़ के रूप में विनाशकारी प्रभाव बढ़े हैं। अध्ययनों के अनुसार 2000 के बाद विकासशील एशिया का वैश्विक ग्रीनहाऊस उत्सर्जन में योगदान बढ़ा है। विश्व मौसम संगठन के वार्षिक ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन के अनुसार आने वाले कई वर्षों तक पृथ्वी का तापमान बढ़ता रहेगा। वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्सासड तेजी से जमा हो रही है। तापमान वृद्धि के लिए मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। निरंतर और पेड़ों के बेतहाशा कटान, वनाग्नि, औद्योगिकीकरण और कंकरीट के फैलते जंगल सामान्य कारक हैं। ग्रीनहाऊस यानी हरित गृह प्रभाव वातावरण में मौजूद गैसों के तापमान को गरमाने का कारण बनता है। सरकार की योजनानुसार 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में तकरीबन एक अरब टन की कमी लाने के प्रयास होंगे। मगर बढ़ती गरमी से तमाम तरह के संक्रमण निरंतर बढ़ रहे हैं। उपज और खाद्य के साथ ही पेयजल की कमी बढ़ते जाने के भी अनुमान हैं। चूंकि हम कृषि प्रधान देश हैं, ऐसे में हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर है। मौसम की मार से निपटने के लिए आमजन को कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। दीपावली तक ठंड की आहट न होने से लोग यूं ही फिक्रमंद हैं। रिकॉर्ड मौसम के ही नहीं टूट रहे, इस गरमाहट ने आम जन को भी संकट में डाल दिया है जिससे सामूहिक तौर पर जूझने को तैयार रहना होगा।


Date: 04-11-24

किसानों को भरोसा देने की कोशिश

अमित बैजनाथ गर्ग

हाल ही में केंद्र सरकार ने छह रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी की है. यह बढ़ोतरी न्यूनतम 130 रुपये और अधिकतम 300 रुपये प्रति क्विंटल है. गेहूं का एमएसपी 150 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है। रेपसीड और सरसों की कीमत में 300 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की गई है. दाल में 275 रुपए की बढ़ोतरी की गई है। रबी फसलों की सरकारी दरों पर खरीद-बिक्री का सीजन अप्रैल, 2025 से शुरू होगा।

खास बात यह है कि ज्यादातर फसलों का एमएसपी अब लागत से करीब-करीब डेढ़ गुना हो गया है, जिसकी मांग किसान लगातार कर रहे थे. एमएसपी में 23 फसलों को शामिल किया गया है. किसान एमएसपी बढ़ाने को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. सवाल ये है कि क्या इस बार एमएसपी बढ़ने से अगली बार आंदोलन नहीं होगा! एमएसपी किसानों से तय दरों पर फसल खरीदने की गारंटी है। इससे किसानों को बाजार के उतार-चढ़ाव से सुरक्षा मिलती है।

एमएसपी की शुरुआत 1967 में हुई थी. एमएसपी निर्धारित करने के लिए कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट का उपयोग किया जाता है। सीएसीपी उत्पादन लागत, बाजार के रुझान और मांग-आपूर्ति के आधार पर एमएसपी निर्धारित करता है। सीएसीपी एमएसपी की गणना के लिए खेती की लागत को तीन भागों में बांटती है। इसमें फसल उत्पादन के लिए किसानों के नकद खर्च के साथ-साथ पारिवारिक श्रम की भी गणना की जाती है। एमएसपी बढ़ाने से किसानों को लाभकारी मूल्य मिलता है और फसल विविधीकरण में मदद मिलती है।

एमएसपी बढ़ाने के पीछे केंद्र सरकार का तर्क है कि इससे किसानों की आय बढ़ेगी. हालांकि, किसान नेता सरकार के दावे से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि सरकार किसानों की आय बढ़ाने के लिए कई उपाय कर सकती है. उनमें से एक है मूल्य स्थिरता कोष का गठन, यानी जब फसल का बाजार मूल्य एमएसपी से नीचे चला जाता है, तो सरकार इसकी भरपाई करती है। किसानों को चावल-गेहूं की फसलों के स्थान पर अधिक मूल्य वाली फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। फल, सब्जी, मवेशी, मछली पालन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की आड़ में किसानों को कंपनियों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए. ये कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट तोड़ती हैं और किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है. वह कर्ज में डूब जाता है और आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाता है।

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि एमएसपी व्यवस्था का प्रभुत्व इस क्षेत्र में नवाचार को हतोत्साहित करेगा। किसान सरकारी व्यवस्थाओं पर निर्भर रहेंगे और जोखिम लेने से डरेंगे। इसलिए किसानों को चावल-गेहूं एमएसपी खरीद के चक्र से मुक्त करने की जरूरत है। एमएसपी की कानूनी गारंटी से किसानों को नुकसान होगा। उनका दावा है कि स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक, अगर फसलों के दाम बढ़े तो खाद्य पदार्थों के दाम 25 से 30 फीसदी तक बढ़ जाएंगे और सरकार के लिए महंगाई पर काबू पाना मुश्किल हो जाएगा. किसानों का कहना है कि सरकार को उनकी फसल खरीदने की जिम्मेदारी लेनी होगी. सरकार और उसकी एजेंसियों को किसानों द्वारा उत्पादित सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदना होगा। तभी किसानों का भला होगा और फसलों का विविधीकरण भी पूरा हो सकेगा।

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खाद्य सुरक्षा देश के लिए स्थिरता और सम्मान का मामला है. एमएसपी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ-साथ खुले बाजार में कीमतों को नियंत्रित करने के लिए एक हस्तक्षेप तंत्र साबित हुआ है। कतर, बहरीन आदि जैसे कम आबादी और मजबूत औद्योगिक-आर्थिक आधार वाले देशों के लिए आयात के माध्यम से खाद्य सुरक्षा एक व्यवहार्य मॉडल हो सकता है।

उनका दावा है कि ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका प्रतिस्पर्धी कीमतों पर गेहूं का उत्पादन और दुनिया के बाकी हिस्सों में निर्यात कर सकते हैं, लेकिन तब कृषि गतिविधियों में शामिल भारतीयों सहित दुनिया की आधी आबादी बेरोजगार हो जाएगी। उनका कहना है कि कुछ मामलों में आयात की पक्षपातपूर्ण सरकारी नीति ने देश में तिलहन किसानों और खाद्य तेल उद्योगों को नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में कृषि क्षेत्र में ऐसी नीतियों से बचना चाहिए.

कृषि विशेषज्ञ डॉ वीरेंद्र सिंह लाठर का कहना है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी से देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी और बाजार में महंगाई भी नियंत्रित होगी, जिससे किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचाया जा सकेगा. एमएसपी की कानूनी गारंटी तिलहन सहित सभी कृषि वस्तुओं में आत्मनिर्भरता के माध्यम से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, जो अधिक पानी और संसाधन खपत वाली अनाज फसलों के उत्पादन की तुलना में किसानों के लिए अधिक फायदेमंद होगी।


Date: 04-11-24

कहीं एआई कोई बुलबुला तो नहीं

हरजिंदर

आपको कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन खरीदनी है, बाजार में आपको ऐसी-ऐसी वाशिंग मशीन मिल जाएंगी, जिनके बारे में दावा है कि उनमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) की तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। एआई का इस्तेमाल करने वाले रेफ्रिजरेटर और कैमरे तो पहले ही बाजार में आ गए थे और जिस स्मार्टफोन में एआई न हो, उसे तो आजकल खटारा ही मान लिया जाता है। सुई से लेकर जहाज तक, एआई को आजकल हर चीज से जोड़ा जा रहा है।

आप कह सकते हैं कि कैमरे और स्मार्टफोन में तो फिर भी एआई का मतलब है, लेकिन कपड़े धोने के कामका कृत्रिम मशीनी बुद्धि से क्या लेना-देना? 21वीं सदी के तीसरे दशक में पूरी दुनिया का बाजार एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां एआई को ही कामयाबी और आधुनिक तकनीक का मूलमंत्र मान लिया गया है। हरेक चीज, हर तकनीक, हर प्रक्रिया और हर व्यवस्था में एआई को प्रवेश कराने के रास्ते तलाशे जाने लगे हैं। यह मान लिया गया है कि अगर किसी चीज में एआई नहीं है, तो वह गुजरे जमाने की चीज हो चुकी है। कारोबार की दुनिया के कुछ लोग तो यह तक कहने लगे हैं कि जिसके पास एआई नहीं है, उसके भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता।

नतीजा यह है कि इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा निवेश एआई में ही हो रहा है। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और मेटा प्लेटफॉर्म जैसी दुनिया की धुरंधर कंपनियां तो एआई में खरबों डॉलर का निवेश कर ही रही हैं, बेंगलुरु, गुड़गांव और नोएडा में आपको हजारों ऐसे स्टार्टअप मिल जाएंगे, जो एआई की बहती धारा से ही उम्मीद बांधे हुए हैं। कहा जा रहा है कि एआई तकनीक दुनिया के पूरे रोजगार परिदृश्य को बदल डालेगी। इसे लेकर उम्मीदें अगर आसमान पर हैं, तो आशंकाएं भी उनसे कुछ कम नहीं हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि यथार्थ के धरातल पर कोई नहीं है।

ये हालात बहुत से विश्लेषकों को चिंता की लकीरें दे रहे हैं। चीन की गूगल कहलाने वाली इंटरनेट कंपनी बाइडू के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रॉबिन ली ने कहा है कि यह सब बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं है। अभी एआई के नाम पर जो हो रहा है, वह एक बुलबुला है, जिसका आकार लगातार बढ़ता जा रहा है। यह बुलबुला फूटने के लिए अभिशप्त है। जब यह फूटेगा, तो इसके 99 फीसदी खिलाड़ी हवा हो जाएंगे, बस एक फीसदी बचेंगे। रॉबिन ली ने इसमें एक और बात जोड़ दी कि एआई के बुलबुले का वही हश्र होगा, जो एक समय में डॉट कॉम के बुलबुले का हुआ था।

ठीक यहीं पर पिछली सदी के अंतिम दशक में हुई उस घटना को याद कर लेना जरूरी है, जिसे ‘डॉट- कॉम बबल’ कहा जाता है। उम्मीदें तब भी इसी तरह आसमान पर थीं। दुनिया की हर समस्या को वेबसाइट और पोर्टल के जरिये सुलझा लेने की बातें होने लगी थीं। इंटरनेट क्रांति में भविष्य के जो आश्वासन थे, उन्हें भुनाने की होड़ लग गई थी। तब भी इसमें भारी निवेश हुआ था। तकनीक के उन आश्वासनों और उनसे बनाई गई उम्मीदों में कुछ भी गलत नहीं था। समस्या बहुत हद तक उस हड़बड़ी में थी, जो एक ही साथ मुर्गी के सारे सुनहरे अंडे हासिल कर लेना चाहती थी। यह सब बहुत दिन नहीं चलना था और फिर बीसवीं सदी के अंतिम वर्ष में एक दिन यह बुलबुला फूट गया। निवेशकों के अरबों डॉलर डूब गए और डॉट कॉम बाजार से बांधे गए लाखों अरमान भी टूट गए।

इसके बाद की चौथाई सदी को देखें, तो लगता है कि उस समय जो उम्मीदें बांधी गई थीं, उनमें कुछ भी गलत नहीं था। आखिर में हुआ वहीं, जो उस समय सोचा गया था। दुनिया की सारी व्यवस्थाएं अंत में इंटरनेट पर आ गई। आज हमारी जिंदगी के हरेक पहलू में इंटरनेट की थोड़ी बहुत दखल जरूर है। इसने बहुत सी चीजों को आपस में जोड़ा है और जिंदगी को कई तरह से आसान बना दिया है। यह सब इतना आमफहम हो गया है कि यहां उदाहरण देने की भी शायद कोई जरूरत नहीं है।

समस्या वैसे उन उम्मीदों से थी भी नहीं, समस्या उस व्यापार तंत्र से थी, जो किसी भी संभावना का एक सिरा पकड़कर रातोंरात वारे-न्यारे कर लेना चाहता है। मिर्जा गालिब ने कहा था- आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, इसी तरह हर तकनीक को भी अपना रंग दिखाने के लिए एक काल खंड की जरूरत होती है। मगर इसके लिए जिस सब की दरकार होती है, वह शेयर बाजार के तेजड़ियों और मंदड़ियों की फितरत में नहीं होता। ऐसे में, किसी भी नई तकनीक को लेकर उनकी सक्रियता अक्सर बुलबुले का निर्माण कर देती है। बाजार तो नई संभावना के पहले संकेत पढ़कर ही बल्लियों उछलने लगता है। यह बुलबुला जितना ज्यादा बढ़ता जाता है, उसकी सुंदरता उतना ही नए निवेशकों को आकर्षित करती है और उतना ही इसका आकार बड़ा होता जाता है। फूट जाने के अलावा फिर इस बुलबुले के सामने कोई और विकल्प नहीं रहता। इसमें गलती न तो तकनीक की होती है और न ही उससे बांधी गई उम्मीदों की।

जिस समय डॉट कॉम का यह बुलबुला फूटा, उसी समय एक और तकनीक के चर्चे चले थे-नैनो तकनीक । तब भी यही कहा गया था कि यह पूरी दुनिया बदलने जा रही है। हमें बताया गया कि नैनो तकनीक से ऐसी दवाइयां बनेंगी, जो एक बार शरीर में गईं, तो रोग को जड़ से खत्म करके ही दम लेंगी। उद्योगों और उत्पादों के बारे में भी बड़ी-बड़ी बातें कही गई थीं। कहा गया था कि नैनो तकनीक से ऐसे टावर बनाए जाएंगे कि कारें पुरानी होकर खटारा हो जाएंगी, लेकिन टायर नए के नए रहेंगे। ये सारी फंतासी अभी तक तो जमीन पर नहीं उतरी, पर नैनो तकनीक धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है। नैनो तकनीक का बुलबुला ज्यादा बड़ा नहीं हो सका, क्योंकि जब तक इसका मौका आया एआई की संभावनाएं सामने दिखने लगीं और फिर वह सब हो गया, जिसकी हम यहां चर्चा कर रहे हैं।

कामना तो यही की जा सकती है कि रॉबिन ली ने एआई के बारे में जो कहा है, वह आखिर में गलत साबित हो जाए, क्योंकि इससे जो आर्थिक उखाड़- पछाड़ होगी, उसका असर दूर तक जा सकता है। यह जरूर है कि तकनीक इसके बावजूद अपनी गति से ही आगे बढ़ेगी। समस्या उन लोगों को आ सकती है, जो इस तकनीक से तत्काल चकाचौंध या अंधेरे की अटकलों से अपनी डोर बांध चुके हैं।